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पहचान

न जाने कौन हूँ क्या चाहती हूँ मैं भरम के धागों से तख़ईल का कमख़्वाब बुनती हूँ तमन्नाओं के रेशम से हज़ारों ख़्वाब बुनती हूँ ख़यालों की ज़मीं पर इक नई दुनिया बनाती हूँ वहाँ वहम-ओ-गुमाँ की फिर नई बस्ती बसाती हूँ वो सब धागे भरम के ख़ुद ही मैं फिर तोड़ देती हूँ तमन्नाओं के ख़्वाबों को अधूरा छोड़ देती हूँ हर इक वहम-ओ-गुमाँ को अपने हाथों क़त्ल करती हूँ हर इक ख़िश्त-ए-तसव्वर को गिरा कर फोड़ देती हूँ तसव्वर के परों पर मैं जहाँ की सैर करती हूँ मुक़ाबिल रख के आईना मोहब्बत का सँवरती हूँ उतर जाती हूँ फिर ख़ुद ही सियहख़ानों में बातिन के कुरेदा करती हूँ मैं ज़ख़्म सारे रूह-ए-साकिन के मसर्रत की रिदा से दाग़ अश्कों के छुपाती हूँ जो अपने दिल की आतिश को हवा दे कर जलाती हूँ पिघल जाती हूँ ख़ुद ही , फिर नए पैकर में आती हूँ मैं ख़ुद को तोड़ती हूँ बारहा और फिर बनाती हूँ न जाने कितने नक़्शे ज़ह्न के पर्दे प बनते हैं तलातुम जाने कितने रोज़ आँखों में उफनते हैं कहीं हैं नूर के झुरमुट , कहीं गहरा अँधेरा है   ख़यालों के हर इक गोशे पे सौ यादों का डेरा है ज़का महदूद है हर आन बीनाई के

कितनी मैली हुई आदमी की ज़ुबाँ

कितनी   मैली   हुई   आदमी   की   ज़ुबाँ क्यूँ   फिसल   जाती   है   अब   सभी   की   ज़ुबाँ अपनी   हस्ती   का   कुछ   फ़ैसला   भी   तो   हो जाने   कब   तक   खुले   आगही   की   ज़ुबाँ   उस   की   आँखों   में   तो   दर्ज   था   सब   मगर दिल   को   आती   न   थी   बेरुख़ी   की   ज़ुबाँ   कजकुलाही   तक़ाज़ा   है   इस   दौर   का काट   लेते   हैं   अब   आजिज़ी   की   ज़ुबाँ   सहबा   ए लम्स   में   वो   असर   था   के   बस लडखडाने   लगी   बेख़ुदी   की   ज़ुबाँ इस   को   ' मुमताज़ " हर   नस्ल   दोहराएगी मेरा   हर   लफ़्ज़   है   इक   सदी   की   ज़ुबाँ आगही = भविष्यफल , कजकुलाही =   टेढापन , आजिज़ी = ख़ाकसारी , सहबा = शराब , लम्स = स्पर्श , बेख़ुदी = होश न रहना , हलावत = मिठास . کتنی   میلی   ہی   آدمی   کی   زباں کیوں   پھسل   جاتی   ہے   اب   سبھی   کی   زباں اپنی   ہستی   کا   کچھ   فیصلہ   بھی   تو   ہو جانے   کب   تک   کھلے   آگہی   کی   زباں    اس   کی   آنکھوں   میں   تو   درج   تھا   سب   مگر دل   کو   آتی   نہ   تھی  

छोड़ती हैं तुंद लहरों पर निशानी कश्तियाँ

छोड़ती हैं तुंद लहरों पर निशानी कश्तियाँ करती हैं तुग़ियानियों की मेज़बानी कश्तियाँ अलग़रज़ मौजों से लड़ना फ़र्ज़ ठहरा है मगर टूटे हैं पतवार अपने , हैं पुरानी कश्तियाँ हो कोई इन में शनावर भी , कोई लाज़िम है क्या पार ले जाएँगी इन को ख़ानदानी कश्तियाँ अब चलेंगी इस सियासत के समंदर में जनाब इंतेख़ाबी रुत में यारों की लिसानी कश्तियाँ हर लहर पर जीत की इक दास्ताँ लिखती चलें सागरों से खेलती हैं जाविदानी कश्तियाँ बारहा यूँ भी हुआ है साहिलों के आस पास डूब जाएँ डगमगा कर नागहानी कश्तियाँ फिर हुआ बेदार इक आवारगी का सिलसिला फिर बुलाती हैं हमें वो बादबानी कश्तियाँ रतजगों का ये समंदर सर भी करना है अभी और फिर “मुमताज़” हम को हैं जलानी कश्तियाँ

हो गया दिल जो गिरफ़तार-ए-सितम आप से आप

हो गया दिल जो गिरफ़तार - ए - सितम आप से आप दिल में लेने लगे अरमान जनम आप से आप मोड़ वो आया तो कुछ देर को सोचा हम   ने उठ गए फिर तेरी जानिब को क़दम आप से आप इस क़दर तारी हुआ अब के मेरे दिल पे जमूद टूट कर रह गया ख़्वाबों का भरम आप से आप दर्द बढ़ता जो गया , दर्द का एहसास मिटा हो गए दूर सभी रंज ओ अलम आप से आप फ़ैसला तर्क - ए - त ' अल्लुक़ का लिखा था उस को और फिर टूट गया मेरा क़लम आप से आप अब्र कल रात उठा , टूट के बरसात हुई दिल के सेहरा की ज़मीं हो गई नम आप से आप मेरी मजबूर वफाओं का तक़ाज़ा था यही " उन का दर आया जबीं हो गई ख़म आप से आप " फ़ैसला होना है ' मुमताज़ ' मेरी क़िस्मत का रख दिया क्यूँ मेरे कातिब ने क़लम आप से आप ہو   گیا   دل   یہ   گرفتار_ ستم   آپ   سے   آپ دل   میں   لینے   لگی   حسرت   وہ    جنم   آپ   سے   آپ جب   وہ    موڑ   آیا   تو , کچھ   دیر   تو   سوچا   ہم   نے