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हम भी ज़रा अनाड़ी हैं उल्फ़त के बाब में

हम   भी   ज़रा   अनाड़ी   हैं   उल्फ़त   के   बाब   में कच्चे   हैं   थोड़े   वो   भी   वफ़ा   के   हिसाब   में देखे   हैं   कैसे   कैसे   हसीं   रंग   ख़्वाब   में कितने   ही   अक्स   तैर   रहे   हैं   हुबाब   में क्या   फ़ायदा   है   ऐसी   सहर   से   भी   दोस्तों अब   तो   सियाही   दिखने   लगी   आफ़ताब   में बढ़   चढ़   के   काटते   हैं   दलीलें   ख़िरद   की   हम ज़िद   का   सबक़   पढ़ा   है   जुनूँ   की   किताब   में राहत , सुकून , मस्तियाँ , बचपन , शबाब , घर सामान   कितना   छूट   गया   है   शिताब   में अब   तो   कोई   इलाज   है   लाजिम   हयात   का   कब   तक   सुकून   पाते   रहें   हम   अज़ाब   में शायद   ये   तश्नगी    का   सफ़र   मुस्तक़िल   रहे ' मुमताज़ ' आज   देखा   है   सेहरा   जो   ख़्वाब   में बाब = पाठ , हिसाब = गणित , हसीं = सुन्दर , ख़्वाब = सपना , अक्स = प्रतिबिम्ब , हुबाब = बुलबुला , सहर = सुबह , सियाही = कालिख , आफ़ताब = सूरज , ख़िरद = बुद्धिमानी , जुनूँ = पागलपन , शबाब = जवानी , शिताब = जल्दी , लाज़िम = ज़रूरी

है इंतज़ार अना को, मगर नहीं होता

है इंतज़ार अना को , मगर नहीं होता कोई भी दाँव कभी कारगर नहीं होता। हक़ीक़तें कभी आँखों से छुप भी सकती हैं हर एक अहल-ए-नज़र दीदावर नहीं होता गुनह से बच के गुज़र जाना जिस को आ जाता तो फिर फ़रिश्ता वो होता , बशर नहीं होता हज़ार बार ख़िज़ाँ आई दिल के गुलशन में ये आरज़ू का शजर बेसमर नहीं होता हयात लम्हा ब लम्हा गुज़रती जाती है हयात का वही लम्हा बसर नहीं होता बिसात-ए-हक़ प गुमाँ की न खेलिए बाज़ी यक़ीं की राह से शक का गुज़र नहीं होता बचा भी क्या है मेरी ज़ात के ख़ज़ाने में कि बेनवाओं को लुटने का डर नहीं होता भटकते फिरते हैं “ मुमताज़ ” हम से ख़ानाबदोश हर एक शख़्स की क़िस्मत में घर नहीं होता

दिल की महरूमी फ़िज़ा में जो भर गई होगी

दिल की महरूमी फ़िज़ा में जो भर गई होगी रात अपनी ही सियाही से डर गई होगी कैसे आते भी नज़र ज़ेर-ओ-बम ज़माने के ख़्वाब की धुंद निगाहों में भर गई होगी छोड़ आई थी उसे मैं प ज़िन्दगी फिर भी जुस्तजू में तो मेरी दर ब दर गई होगी क़तरे क़तरे को तरसती वो प्यास उकता कर सब्र का पी के पियाला वो मर गई होगी छोड़ दी होगी उसी राह पे पहचान मेरी ज़िन्दगी मुझ पे ये अहसान कर गई होगी जिस को देखा ही नहीं हम ने ख़ुदपरस्ती में दूर तक साथ वही चश्म-ए-तर गई होगी तुम को कतरा के गुज़र जाने का फ़न आता था आख़िरश सारी ख़ता मेरे सर गई होगी मैं ने दिल तक की हर इक राह बंद कर दी थी सोचती हूँ कि तमन्ना किधर गई होगी वक़्त ने तोड़ दिया होगा ग़ुरूर-ए-हस्ती मेरी “ मुमताज़ ” वो ग़ैरत भी मर गई होगी

यास की मलगुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर

यास की मलगुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर याद ने तोड़ दिया होगा अना का भी ग़ुरूर ज़ह्न से पोंछ दिया उस का हर इक नक़्श-ओ-निगार आख़िरश कर ही लिया आज ये दरिया भी उबूर राहज़न वक़्त ने बहका के हमें लूट लिया न मोहब्बत की ख़ता थी , न जफ़ाओं का क़ुसूर फिर कहीं ऐसा न हो , तेरी ज़रूरत न रहे फिर न इस सर से उतर जाए रिफ़ाक़त का सुरूर तीरगी फैल गई फिर से निगाहों में कि बस एक लम्हे को हुआ दिल में तमन्ना का ज़हूर तालिब-ए-ज़ौक़-ए-समाअत है हमारी भी सदा एक फरियाद लिए आए हैं हम तेरे हुज़ूर आज फिर हिर्स से दानाई ने खाई है शिकस्त जाल में फिर से फ़रेबों के उतर आए तुयूर इस नई नस्ल की क़दरों का ख़ुदा हाफ़िज़ है कोई बीनाई का ढब है न समाअत का शऊर वो सुने या न सुने , बोझ तो हट जाएगा आज “ मुमताज़ ” उसे हाल तो कहना है ज़रूर

माज़ी के अलम हाल को खाने नहीं आते

माज़ी   के   अलम   हाल   को   खाने   नहीं   आते वापस   तो   पलट   कर   वो   ज़माने   नहीं   आते कितना   है   बयाबान   मेरी   ज़ात   का   जंगल अरमाँ   भी   यहाँ   शोर   मचाने   नहीं   आते जो   आँख   को   मोती   मिले , लौटाएँ   किसे   हम क़र्ज़े   ये   अभी   हम   को   चुकाने   नहीं   आते तन्हाई   की   वो   हद   है   के   साया   भी   नहीं   साथ वो   ख़्वाब   भी   अब   हम   को   रुलाने   नहीं   आते मालूम   जो   होती   हमें   उल्फ़त   की   हक़ीक़त हम   ख़्वाब   यहाँ   अपने   गँवाने   नहीं   आते बन   जाती   हैं   आईना   तमन्नाओं   का   अक्सर " आँखों   को   अभी   ख़्वाब   छुपाने   नहीं   आते " ماضی   کے   الم   حال   کو   کھانے   نہیں   آتے واپس   تو   پلٹ   کر   وہ    زمانے   نہیں   آتے کتنا   ہے   بیابان   مری   ذات   کا   جنگل   ارماں   بھی   یہاں   شور   مچانے   نہیں   آتے جو   آنکھ   کو   موتی   ملے , لوٹائیں   کسے   ہم قرضے   یہ   ابھی   ہم   کو   چکانے   نہیں   آتے تنہائی   کی   وہ    حد   ہے   کہ    سایہ