हम भी ज़रा अनाड़ी हैं उल्फ़त के बाब में
हम भी ज़रा अनाड़ी हैं उल्फ़त के बाब में कच्चे हैं थोड़े वो भी वफ़ा के हिसाब में देखे हैं कैसे कैसे हसीं रंग ख़्वाब में कितने ही अक्स तैर रहे हैं हुबाब में क्या फ़ायदा है ऐसी सहर से भी दोस्तों अब तो सियाही दिखने लगी आफ़ताब में बढ़ चढ़ के काटते हैं दलीलें ख़िरद की हम ज़िद का सबक़ पढ़ा है जुनूँ की किताब में राहत , सुकून , मस्तियाँ , बचपन , शबाब , घर सामान कितना छूट गया है शिताब में अब तो कोई इलाज है लाजिम हयात का कब तक सुकून पाते रहें हम अज़ाब में शायद ये तश्नगी का सफ़र मुस्तक़िल रहे ' मुमताज़ ' आज देखा है सेहरा जो ख़्वाब में बाब = पाठ , हिसाब = गणित , हसीं = सुन्दर , ख़्वाब = सपना , अक्स = प्रतिबिम्ब , हुबाब = बुलबुला , सहर = सुबह , सियाही = कालिख , आफ़ताब = सूरज , ख़िरद = बुद्धिमानी , जुनूँ = पागलपन , शबाब = जवानी , शिताब = जल्दी , लाज़िम = ज़रूरी