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चार दिन की ख़ुशकलामी, ज़िन्दगी भर का अज़ाब

चार दिन की ख़ुशकलामी , ज़िन्दगी भर का अज़ाब इश्क़ की हस्ती ही क्या है , एक झोंका , इक सराब कोई जज़्बा , कोई हाजत , आरज़ू कोई ,   न ख़्वाब इस हक़ीक़त की ज़मीं पर हम ने बस पाया सराब ज़िन्दगी फिर मांगती है लम्हा लम्हा का हिसाब सर झुकाए हम खड़े हैं , अब इसे क्या दें जवाब कैसा ये सैलाब आया दिल के रेगिस्तान में ज़िन्दगी है रेज़ा रेज़ा , हसरतें हैं आब आब हर घड़ी दिल की ज़मीं पर रक़्स करती हैं हनोज़ इन शिकस्ता हसरतों को क्यूँ नहीं आता हिजाब इस ज़मीन-ए-ज़ात में अब ज़लज़ला आने को है ज़िन्दगी करने चली है आरज़ू का एहतेसाब अब गिला भी क्या करें आवारगी से दोस्तो हम तो ख़ुद करते रहे हैं वहशतों का इंतेख़ाब दिल जो मुतहर्रिक हुआ तो मिट गया सारा जमूद हस्ती-ए-बेहिस में यारो आ चुका है इन्क़ेलाब छूटते जाते हैं पीछे ख़ाल-ओ-ख़द , नाम-ओ-वजूद अलग़रज़ हम वक़्त से “ मुमताज़ ” अब हैं हमरक़ाब

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं खिलखिलाते लम्हों से ज़िन्दगी चुराते हैं कोई ख़्वाब भी हम को ढूँढने न आ पाए नक़्श अब के पाओं के हम मिटाते जाते हैं ख़ूब हम समझते हैं रहनुमा की सब चालें जान बूझ कर अक्सर हम फ़रेब खाते हैं रौशनी तो क्या होगी झिलमिलाते अश्कों से इन रवाँ चराग़ों को आज हम बुझाते हैं दास्ताँ में तो उन का ज़िक्र तक नहीं आया उन को क्या हुआ आख़िर आँख क्यूँ चुराते हैं दिल के इस बयाबाँ में कोई तो नहीं आता आज फिर यहाँ किस के साए सरसराते हैं ढूंढती रहे “ मुमताज़ ” अब हमें सियहबख़्ती दास्ताँ अधूरी हम अब के छोड़ जाते हैं

जब तलक लब वज़ू नहीं करते

जब तलक लब वज़ू नहीं करते हम तेरी गुफ़्तगू नहीं करते हम अबस हा-ओ-हू नहीं करते ख़ामुशी को लहू नहीं करते ख़ुद हमारी तलाश में है तू हम तेरी जुस्तजू नहीं करते डर गए हैं शिकस्त से इतना अब कोई आरज़ू नहीं करते हर खुले ज़ख़्म में है अक्स उस का यूँ इन्हें हम रफ़ू नहीं करते ज़ख़्म भी दे , वो हाल भी पूछे ये इनायत अदू नहीं करते सारे एहसास मुंतशिर हैं अब क्या सितम रंग-ओ-बू नहीं करते दिल को इसरार जिस प है इतना हम वही गुफ़्तगू नहीं करते ख़ाक होने लगे वो मुर्दा पल अब वो  “ मुमताज़ ”  बू नहीं करते

एहसास-ए-रेग-ए-जाँ में वो सराब का तअक़्क़ुब

एहसास-ए-रेग-ए-जाँ में वो सराब का तअक़्क़ुब कब तक करोगे आख़िर इक ख़्वाब का तअक़्क़ुब हमें दे रहा है धोका ये हुबाब का तअक़्क़ुब अभी उम्र कर रही है जो शबाब का तअक़्क़ुब दिखलाएँ जाने क्या क्या ये तक़ाज़े मसलहत के ख़ुर्शीद सी तबीयत , मेहताब का तअक़्क़ुब ये करिश्मा भी है मुमकिन जो बलन्द हो इरादा कोई नाव कर रही हो गिर्दाब का तअक़्क़ुब ये जुनूँ की आज़माइश , ये है वहशतों की साज़िश मुझे मार ही न डाले ये अज़ाब का तअक़्क़ुब कभी ज़ेहन दर ब दर है , कभी मुंतशिर तबीअत वही इज़्तराब-ए-पैहम सीमाब का तअक़्क़ुब कभी कोई पल सुकूँ का न हुआ नसीब मुझ को मेरी ज़िन्दगी मुसलसल सैलाब का तअक़्क़ुब तुझे तोड़ देगा आख़िर ये तेरा जुनून-ए-बे जा “ मुमताज़ ”  तर्क कर दे नायाब का तअक़्क़ुब

ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से

ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से हमें वहशत सी अब होने लगी मर मर के जीने से बड़ी तल्ख़ी है लेकिन इस में नश्शा भी निराला है हमें मत रोक साक़ी ज़िन्दगी के जाम पीने से हर इक हसरत को तोड़े जा रहे हैं रेज़ा रेज़ा हम उतर जाए ये बार-ए-आरज़ू शायद कि सीने से अभी तक ये फ़सादों की गवाही देती रहती है लहू की बू अभी तक आती रहती है ख़ज़ीने से बिखर जाएगा सोना इस ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे पर ये मिट्टी जगमगा उट्ठेगी मेहनत के पसीने से हमारे दिल के शोलों से पियाला जल उठा शायद लपट सी उठ रही है आज ये क्यूँ आबगीने से ये जब बेदार होते हैं निगल जाते हैं ख़ुशियों को ख़लिश के अज़्दहे लिपटे हैं माज़ी के दफ़ीने से हमें तो ज़िन्दगी ने हर तरह आबाद रक्खा है   तो क्यूँ “ मुमताज़ ” अब लगने लगा है ख़ौफ़ जीने से

कहाँ तक न जाने मैं आ गई गुम रात दिन के शुमार में

कहाँ  तक न जाने मैं आ गई गुम रात दिन के शुमार में कहीं क़ाफ़िला भी वो खो गया इन्हीं गर्दिशों के ग़ुबार में न कोई रफ़ीक़ न आशना , न अदू न कोई रक़ीब है मैं हूँ कब से तन्हा खड़ी हुई इस अना के तंग हिसार में है अजीब फ़ितरत-ए-बेकराँ कि सुकूँ का कोई नहीं निशाँ कभी शादमाँ हूँ गिरफ़्त में कभी मुंतशिर हूँ फ़रार में वो शब-ए-सियाह गुज़र गई मेरी ज़िन्दगी तो ठहर गई है अजीब सी कोई बेकली कोई कश्मकश है क़रार में जले पर भी वक़्त की धूप में गिरे हम ज़मीं प हज़ारहा वही हौसले हैं उड़ान में , वही लग़्ज़िशें हैं शआर में जुदा हो गया है वरक़ वरक़ मेरी ज़िन्दगी की किताब का जो ख़ज़ाना दिल में था , खो गया अना परवरी के ख़ुमार में न वो हिस रही न नज़ाकतें न रहीं क़रार की हाजतें न वो दिल में बाक़ी कसक रही न वो दर्द रूह-ए-फ़िगार में हर सिम्त खिल गए गुल ही गुल हद्द-ए-निगाह तलक मगर हैं चमन चमन प उदासियाँ हैं ख़िज़ाँ के रंग बहार में मैं थी गुम सफ़र के जुनून में कि न देखे ख़ार भी राह के दिल-ए- “ नाज़ाँ ” होता रहा लहू किसी आरज़ू के फ़िशार में

तजज़िया

ऐ मुसलमानो , ज़रा अपना करो कुछ तजज़िया कब तलक हालात का अपने पढ़ोगे मर्सिया कब तलक सोते रहोगे ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में जनाब सर प आ पहुँचा है फिर इक बार वक़्त-ए-इंक़िलाब पाई इतने साल में हम ने फ़क़त इक बेकली ना ख़ुदा ही पाया हम ने ना हमें दुनिया मिली क्या हमारी हैसियत , शतरंज की इक गोट हैं हम सियासी लीडरों के वास्ते बस वोट हैं बेनवा , बेआसरा , हैवान , सब समझा हमें हुक्मरानों ने भला इंसान कब समझा हमें ये तो सोचो आज तक ग़ैरों ने हम को क्या दिया रहबरी के नाम पर हम को सदा धोका दिया असबियत , फ़िरक़ापरस्ती , फ़िरक़ावाराना फ़साद चार झूटे लफ़्ज़ , कुछ हमदर्दियाँ नाम-ओ-निहाद लूटती आई है हम को इन की ये सेक्यूलरिज़्म दर हक़ीक़त हैं सभी माइल ब फंडामेन्टालिज़्म मरहले अग़यार के हम को कहाँ पहुँचा गए थे कहाँ और आज हम देखो कहाँ तक आ गए खो गया है दीन अपना , नातवाँ है बंदगी दाने दाने को तरसती है हमारी ज़िन्दगी आज तक कुछ भी न सोचा क़ौम-ए-मुस्लिम के लिए जब चुनाव आया खिलौने हम को कुछ पकड़ा दिये अनगिनत वादे सुनहरे , अनगिनत चमकीले ख़्वाब पर हक़ीक़त की ज़मीं पर हम ने बस पाया सराब