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एहसास-ए-रेग-ए-जाँ में वो सराब का तअक़्क़ुब

एहसास-ए-रेग-ए-जाँ में वो सराब का तअक़्क़ुब कब तक करोगे आख़िर इक ख़्वाब का तअक़्क़ुब हमें दे रहा है धोका ये हुबाब का तअक़्क़ुब अभी उम्र कर रही है जो शबाब का तअक़्क़ुब दिखलाएँ जाने क्या क्या ये तक़ाज़े मसलहत के ख़ुर्शीद सी तबीयत , मेहताब का तअक़्क़ुब ये करिश्मा भी है मुमकिन जो बलन्द हो इरादा कोई नाव कर रही हो गिर्दाब का तअक़्क़ुब ये जुनूँ की आज़माइश , ये है वहशतों की साज़िश मुझे मार ही न डाले ये अज़ाब का तअक़्क़ुब कभी ज़ेहन दर ब दर है , कभी मुंतशिर तबीअत वही इज़्तराब-ए-पैहम सीमाब का तअक़्क़ुब कभी कोई पल सुकूँ का न हुआ नसीब मुझ को मेरी ज़िन्दगी मुसलसल सैलाब का तअक़्क़ुब तुझे तोड़ देगा आख़िर ये तेरा जुनून-ए-बे जा “ मुमताज़ ”  तर्क कर दे नायाब का तअक़्क़ुब

ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से

ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से हमें वहशत सी अब होने लगी मर मर के जीने से बड़ी तल्ख़ी है लेकिन इस में नश्शा भी निराला है हमें मत रोक साक़ी ज़िन्दगी के जाम पीने से हर इक हसरत को तोड़े जा रहे हैं रेज़ा रेज़ा हम उतर जाए ये बार-ए-आरज़ू शायद कि सीने से अभी तक ये फ़सादों की गवाही देती रहती है लहू की बू अभी तक आती रहती है ख़ज़ीने से बिखर जाएगा सोना इस ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे पर ये मिट्टी जगमगा उट्ठेगी मेहनत के पसीने से हमारे दिल के शोलों से पियाला जल उठा शायद लपट सी उठ रही है आज ये क्यूँ आबगीने से ये जब बेदार होते हैं निगल जाते हैं ख़ुशियों को ख़लिश के अज़्दहे लिपटे हैं माज़ी के दफ़ीने से हमें तो ज़िन्दगी ने हर तरह आबाद रक्खा है   तो क्यूँ “ मुमताज़ ” अब लगने लगा है ख़ौफ़ जीने से

कहाँ तक न जाने मैं आ गई गुम रात दिन के शुमार में

कहाँ  तक न जाने मैं आ गई गुम रात दिन के शुमार में कहीं क़ाफ़िला भी वो खो गया इन्हीं गर्दिशों के ग़ुबार में न कोई रफ़ीक़ न आशना , न अदू न कोई रक़ीब है मैं हूँ कब से तन्हा खड़ी हुई इस अना के तंग हिसार में है अजीब फ़ितरत-ए-बेकराँ कि सुकूँ का कोई नहीं निशाँ कभी शादमाँ हूँ गिरफ़्त में कभी मुंतशिर हूँ फ़रार में वो शब-ए-सियाह गुज़र गई मेरी ज़िन्दगी तो ठहर गई है अजीब सी कोई बेकली कोई कश्मकश है क़रार में जले पर भी वक़्त की धूप में गिरे हम ज़मीं प हज़ारहा वही हौसले हैं उड़ान में , वही लग़्ज़िशें हैं शआर में जुदा हो गया है वरक़ वरक़ मेरी ज़िन्दगी की किताब का जो ख़ज़ाना दिल में था , खो गया अना परवरी के ख़ुमार में न वो हिस रही न नज़ाकतें न रहीं क़रार की हाजतें न वो दिल में बाक़ी कसक रही न वो दर्द रूह-ए-फ़िगार में हर सिम्त खिल गए गुल ही गुल हद्द-ए-निगाह तलक मगर हैं चमन चमन प उदासियाँ हैं ख़िज़ाँ के रंग बहार में मैं थी गुम सफ़र के जुनून में कि न देखे ख़ार भी राह के दिल-ए- “ नाज़ाँ ” होता रहा लहू किसी आरज़ू के फ़िशार में

तजज़िया

ऐ मुसलमानो , ज़रा अपना करो कुछ तजज़िया कब तलक हालात का अपने पढ़ोगे मर्सिया कब तलक सोते रहोगे ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में जनाब सर प आ पहुँचा है फिर इक बार वक़्त-ए-इंक़िलाब पाई इतने साल में हम ने फ़क़त इक बेकली ना ख़ुदा ही पाया हम ने ना हमें दुनिया मिली क्या हमारी हैसियत , शतरंज की इक गोट हैं हम सियासी लीडरों के वास्ते बस वोट हैं बेनवा , बेआसरा , हैवान , सब समझा हमें हुक्मरानों ने भला इंसान कब समझा हमें ये तो सोचो आज तक ग़ैरों ने हम को क्या दिया रहबरी के नाम पर हम को सदा धोका दिया असबियत , फ़िरक़ापरस्ती , फ़िरक़ावाराना फ़साद चार झूटे लफ़्ज़ , कुछ हमदर्दियाँ नाम-ओ-निहाद लूटती आई है हम को इन की ये सेक्यूलरिज़्म दर हक़ीक़त हैं सभी माइल ब फंडामेन्टालिज़्म मरहले अग़यार के हम को कहाँ पहुँचा गए थे कहाँ और आज हम देखो कहाँ तक आ गए खो गया है दीन अपना , नातवाँ है बंदगी दाने दाने को तरसती है हमारी ज़िन्दगी आज तक कुछ भी न सोचा क़ौम-ए-मुस्लिम के लिए जब चुनाव आया खिलौने हम को कुछ पकड़ा दिये अनगिनत वादे सुनहरे , अनगिनत चमकीले ख़्वाब पर हक़ीक़त की ज़मीं पर हम ने बस पाया सराब

न सेहरा में भटके, न सागर खंगाले

न सेहरा में भटके , न सागर खंगाले कहाँ तक कोई आरज़ू को संभाले बड़ी देर से मुंतज़िर हैं उम्मीदें मुक़द्दर तमन्ना को वादों पे टाले अभी मसलेहत की सदा रायगाँ है अभी तो ख़िरद है जुनूँ के हवाले जुनूँ से कहो , तोल ले अपनी हस्ती इरादे से कह दो कि पर आज़मा ले   तख़य्युल पे है तीरा बख़्ती का पहरा   ज़ुबाँ पर लगे हैं ख़मोशी के ताले अब इस के लिए उस को तकलीफ़ क्या दें चलो ख़ुद ही हम फोड़ लें दिल के छाले निसार इस जुनूँ के कि दीवानगी में मुक़द्दर के हम ने कई बल निकाले तुम्हें नुक्ताचीनो दिखाएंगे हम भी ज़फ़र याब होंगे सई करने वाले फिराए ख़िरद को न जाने कहाँ तक तसव्वर के “ मुमताज़ ” हैं ढब निराले  

नूर ये किस का रोज़ चुरा कर लाए ये मेहर-ए-ताबाँ

नूर ये किस का रोज़ चुरा कर लाए ये मेहर-ए-ताबाँ रोज़ समंदर की मौजों पर कौन बिखेरे अफ़शाँ टूट गए सब प्यार के टाँके ज़ख़्म हुआ है उरियाँ तेज़ हुई लय दर्द की यारो हार गया हर दरमाँ इश्क़ की बाज़ी , जान का सौदा , दाग़ , सितम , रुसवाई चार क़दम दुश्वार है चलना , राह नहीं ये आसाँ जितनी बढ़ी सैलाब की शिद्दत उतना जुनूँ भी मचला नाव शिकस्ता पार हुई , हैरान खड़ा है तूफ़ाँ ख़ास हुई इख़लास की ज़ौ फिरती है वफ़ा आवारा इश्क़ भी है इफ़रात में हासिल , और हैं दिल भी अर्ज़ाँ जीत गया तू हार के भी हर दाँव शिकस्त-ए-दिल का हार गए हम जीत के भी पिनदार की बाज़ी जानाँ आज हुआ “ मुमताज़ ” मुकम्मल इश्क़ का वो अफ़साना टूट गई ज़ंजीर वफ़ा की तंग हुई जब जौलाँ

दिसंबर के सर्द लम्हे

दिसंबर के हसीं लम्हे लरज़ते शबनमी लम्हे वो अक्सर याद आते हैं वो मंज़र याद आते हैं सहर के वक़्त का स्कूल और सर्दी का वो मौसम वो पानी बर्फ़ सा जिसकी छुअन से जिस्म जाता जम उँगलियाँ सुन्न हों तो पेंसिल पकड़ी नहीं जाए बजें जब दाँत तो फिर लुत्फ़ दे अदरक की वो चाए लड़कपन की वो रुख़सत थी जवानी की वो आमद थी हर इक मंज़र सुहाना था हर इक शय ख़ूबसूरत थी दिसंबर दिन के हर लम्हे मचल कर खिलखिलाता था बदन सूरज की किरनों से हरारत जब चुराता था वो किरनें नर्म थीं कितनी हरारत कितनी नाज़ुक थी हवा की सर्द बाहें छेड़ती थीं उन को छू छू कर तो वो सहमी सी किरनें अपनी गर्मी खेंच लेती थीं सिमट जाती थी नाज़ुक सी शरारत अपने पैकर में दिसंबर का हज़ीं , कमज़ोर सूरज झेंप जाता था तो फिर वह शाम के आँचल में अपना मुँह छुपा लेता सियाही और भी बेबाक हो कर फैलने लगती वो सर्दी रात की पोशाक हो कर फैलने लगती फ़िज़ा कोहरे की चादर ओढ़ कर रूपोश हो जाती हर इक हलचल सहर तक के लिए ख़ामोश हो जाती पहन लेती ख़मोशी घुँघरू जब झींगुर की तानों के तो सुर कुछ तेज़ हो जाते थे स