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न सेहरा में भटके, न सागर खंगाले

न सेहरा में भटके , न सागर खंगाले कहाँ तक कोई आरज़ू को संभाले बड़ी देर से मुंतज़िर हैं उम्मीदें मुक़द्दर तमन्ना को वादों पे टाले अभी मसलेहत की सदा रायगाँ है अभी तो ख़िरद है जुनूँ के हवाले जुनूँ से कहो , तोल ले अपनी हस्ती इरादे से कह दो कि पर आज़मा ले   तख़य्युल पे है तीरा बख़्ती का पहरा   ज़ुबाँ पर लगे हैं ख़मोशी के ताले अब इस के लिए उस को तकलीफ़ क्या दें चलो ख़ुद ही हम फोड़ लें दिल के छाले निसार इस जुनूँ के कि दीवानगी में मुक़द्दर के हम ने कई बल निकाले तुम्हें नुक्ताचीनो दिखाएंगे हम भी ज़फ़र याब होंगे सई करने वाले फिराए ख़िरद को न जाने कहाँ तक तसव्वर के “ मुमताज़ ” हैं ढब निराले  

नूर ये किस का रोज़ चुरा कर लाए ये मेहर-ए-ताबाँ

नूर ये किस का रोज़ चुरा कर लाए ये मेहर-ए-ताबाँ रोज़ समंदर की मौजों पर कौन बिखेरे अफ़शाँ टूट गए सब प्यार के टाँके ज़ख़्म हुआ है उरियाँ तेज़ हुई लय दर्द की यारो हार गया हर दरमाँ इश्क़ की बाज़ी , जान का सौदा , दाग़ , सितम , रुसवाई चार क़दम दुश्वार है चलना , राह नहीं ये आसाँ जितनी बढ़ी सैलाब की शिद्दत उतना जुनूँ भी मचला नाव शिकस्ता पार हुई , हैरान खड़ा है तूफ़ाँ ख़ास हुई इख़लास की ज़ौ फिरती है वफ़ा आवारा इश्क़ भी है इफ़रात में हासिल , और हैं दिल भी अर्ज़ाँ जीत गया तू हार के भी हर दाँव शिकस्त-ए-दिल का हार गए हम जीत के भी पिनदार की बाज़ी जानाँ आज हुआ “ मुमताज़ ” मुकम्मल इश्क़ का वो अफ़साना टूट गई ज़ंजीर वफ़ा की तंग हुई जब जौलाँ

दिसंबर के सर्द लम्हे

दिसंबर के हसीं लम्हे लरज़ते शबनमी लम्हे वो अक्सर याद आते हैं वो मंज़र याद आते हैं सहर के वक़्त का स्कूल और सर्दी का वो मौसम वो पानी बर्फ़ सा जिसकी छुअन से जिस्म जाता जम उँगलियाँ सुन्न हों तो पेंसिल पकड़ी नहीं जाए बजें जब दाँत तो फिर लुत्फ़ दे अदरक की वो चाए लड़कपन की वो रुख़सत थी जवानी की वो आमद थी हर इक मंज़र सुहाना था हर इक शय ख़ूबसूरत थी दिसंबर दिन के हर लम्हे मचल कर खिलखिलाता था बदन सूरज की किरनों से हरारत जब चुराता था वो किरनें नर्म थीं कितनी हरारत कितनी नाज़ुक थी हवा की सर्द बाहें छेड़ती थीं उन को छू छू कर तो वो सहमी सी किरनें अपनी गर्मी खेंच लेती थीं सिमट जाती थी नाज़ुक सी शरारत अपने पैकर में दिसंबर का हज़ीं , कमज़ोर सूरज झेंप जाता था तो फिर वह शाम के आँचल में अपना मुँह छुपा लेता सियाही और भी बेबाक हो कर फैलने लगती वो सर्दी रात की पोशाक हो कर फैलने लगती फ़िज़ा कोहरे की चादर ओढ़ कर रूपोश हो जाती हर इक हलचल सहर तक के लिए ख़ामोश हो जाती पहन लेती ख़मोशी घुँघरू जब झींगुर की तानों के तो सुर कुछ तेज़ हो जाते थे स

मसर्रतों की ज़मीं पर ये कैसी शबनम है

मसर्रतों की ज़मीं पर ये कैसी शबनम है ग़ुबार कैसा है सीने में , मुझ को क्या ग़म है क़दम क़दम प बिछे हैं हज़ारों ख़ार यहाँ अभी संभल के चलो , रौशनी ज़रा कम है ज़रा जो हँसने की कोशिश की , आँख भर आई शगुफ़्ता ख़ुशियों पे महरूमियों का मौसम है थकी थकी सी तमन्ना , उदास उदास उम्मीद बुझा बुझा सा कई दिन से दिल का आलम है जलन से तपने लगी है फ़िज़ा-ए-सहरा-ए-दिल हर एक साँस मेरी ज़िन्दगी का मातम है खिली खिली सी हँसी पर जमी जमी सी ख़लिश तरब के ज़ख़्म प ख़ुशफ़हमियों का मरहम है अभी है क़ैद में ख़ुशबू हैं रंग आवारा अभी बहार परेशाँ है , ज़ीस्त बरहम है नज़र में डूबती जाती हैं रौशनी की लवें यक़ीनन आज सितारों की आँख भी नम है चमन चमन प उदासी , शजर शजर ग़मगीं हर एक शाख़ प “ मुमताज़ ” ज़र्द परचम है     मसर्रतों-खुशियों , ख़ार-काँटे , शगुफ़्ता-खिली हुई , तरब-ख़ुशी , ज़ीस्त-जीवन , बरहम-नाराज़ , शजर-पेड़ , ज़र्द-पीला , परचम-झण्डा 

चंद हुसैनी अशआर

  सब्र-ए-हुसैनी की गर्मी ने फ़ख़्र-ए-यज़ीदी तोड़ दिया सर को झुका कर वक़्त ने वो तारीख़ का पन्ना मोड दिया रो रो कर देती है गवाही कर्बल की ग़म नाक ज़मीं देख के ये दिल सोज़ नज़ारा प्यास ने भी दम तोड़ दिया खेल कर जानों प ज़िंदा कर दिया इस्लाम को सुर्ख़ रू हैं अहल-ए-ईमाँ , रू सियह है हर यज़ीद इब्न-ए-असदुल्लाह से ले कर असग़र-ए-मासूम तक ख़ानदान-ए-हैदरी का बच्चा बच्चा है शहीद आ जाए हक़ पे बात तो जीना गुनाह है पैग़ाम मिट के दे गया कुनबा हुसैन का मलऊन दो जहाँ में ग़ुरूर-ए-यज़ीद है ज़िन्दा रहेगा आख़िरी सजदा हुसैन का उम्मत-ए-इस्लाम को कर दे अता अक़्ल-ए-सलीम तोड़ दे हर जोड़ अब इस आहनी ज़ंजीर का ऐ मेरे मालिक जो देना है हमारी क़ौम को दे जिगर ज़ैनब के जैसा , हौसला शब्बीर का तारीकी-ए-गुनाह में शम्म-ए-वफ़ा हुसैन जहल-ए-यज़ीदियत है कुजा और कुजा हुसैन पंजे क़ज़ा के जब बढ़े असग़र को छीनने अब्बास ने तड़प के पुकारा कि या हुसैन हसरत से देखते हैं कलेजे को थाम कर पैकाँ गुलू-ए-असग़र-ए-कमज़ोर का हुसैन नाना तड़प रहे हैं कि कौसर है मेरे हाथ और हाय रे ये प्यास का मारा मेरा हुसैन अल्लाह म

लग़्ज़िशों को शबाब देती हूँ

लग़्ज़िशों को शबाब देती हूँ फिर बहारों को ख़्वाब देती हूँ ख़ुद को यूँ भी अज़ाब देती हूँ आरज़ू का सराब देती हूँ सी के लब ख़ामुशी के धागों से हसरतों को अज़ाब देती हूँ जी रही हूँ बस एक लम्हे में इक सदी का हिसाब देती हूँ ज़ुल्म सह कर भी मुतमइन हूँ मैं ज़िन्दगी को जवाब देती हूँ वक़्त-ए-रफ़्ता के हाथ में अक्सर ज़िन्दगी की किताब देती हूँ बाल-ओ-पर की हर एक फड़कन को हौसला ? जी जनाब , देती हूँ हर इरादे की धार को फिर से आज “ मुमताज़ ” आब देती हूँ

माज़ी के निशाँ और हाल का ग़म जब एक ठिकाने मिलते हैं

माज़ी के निशाँ और हाल का ग़म जब एक ठिकाने मिलते हैं कुछ और चुभन बढ़ जाती है जब यार पुराने मिलते हैं गो इश्क़ की इस लज़्ज़त से हमें महरूम हुए इक उम्र हुई अब भी वो हमें महरूमी का एहसास दिलाने मिलते हैं दिन रात मिलाने पड़ते हैं घर छोड़ के जाना पड़ता है पुर ज़ोर मशक़्क़त से यारो कुछ रिज़्क़ के दाने मिलते हैं अब तक तो फ़िज़ा-ए-दिल पर भी वीरान ख़िज़ाँ का मौसम है देखें कि बहारों में अब के क्या ख़्वाब न जाने मिलते हैं देखो तो कभी , पलटो तो सही , अनमोल है इन का हर पन्ना माज़ी की किताबों में कितने नायाब फ़साने मिलते हैं हसरत के लहू का हर क़तरा मिट्टी में मिलाना पड़ता है मत पूछिए कितनी मुश्किल से ग़म के ये ख़ज़ाने मिलते हैं जज़्बात के पाओं में बेड़ी , गुफ़्तार पे क़ुफ़्ल-ए-नाज़-ए-अना वो मिलते भी हैं तो यूँ जैसे एहसान जताने मिलते हैं दो चार निवाले भी न मिले तो आब-ए-क़नाअत पी डाला इस बज़्म-ए-जहाँ की भीड़ में कुछ ऐसे भी घराने मिलते हैं तक़सीम-ए-मोहब्बत करते हैं मख़मूर-ए-ग़म-ए-दौराँ हो कर बेकैफ़ जहाँ में अब भी कुछ “ मुमताज़ ” दीवाने मिलते हैं