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शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते

शिकस्ता हसरतों को अपना जो रहबर बना लेते हम अपनी ज़ात के अंदर भी इक महशर बना लेते हमारे दिल की आतिश सर्द होती जाती है वरना हम अपनी बेड़ियों को ढाल कर ख़ंजर बना लेते \ हम अपने हौसलों को अब भी जो थोड़ी हवा देते पसीने को भी अपने अंजुम-ओ-अख़्तर बना लेते अगर परवाज़ अपनी साथ दे देती इरादों का जुनूँ की ज़र्ब से हम आस्माँ में दर बना लेते मज़ा होता अगर इस सहबा-ए-उल्फ़त में थोड़ा भी तो दिल की किरचियों को जोड़ कर साग़र बना लेते अगर ये दौलत-ए-यास-ओ-अलम मिलती नहीं तो भी नज़र के शबनमी क़तरों को हम गौहर बना लेते अभी “ मुमताज़ ” इतना तो न था जज़्बा परस्तिश का तुझे क़िस्मत का अपनी किस लिए रहबर बना लेते  

एक सवाल

तुम्हारे दिल में हम लोगों की ख़ातिर क्यूँ ये नफ़रत है मुझे अपने वतन के चंद लोगों से शिकायत है ये तुम हो , तुम ने हम को आज तक बस ग़ैर जाना है ये हम हैं , हम ने इस हिन्दोस्ताँ को अपना माना है अगर ये सच न होता , तो भला हम क्यूँ यहाँ होते हम अपने खून की बूंदों की क्यूँ फ़सलें यहाँ बोते वो जिस ने एक दिन कुनबे के कुनबे काट डाले थे ज़मीं के साथ ज़हन ओ दिल भी जिस ने बाँट डाले थे ये वहशी साज़िश ए दौरान हम ने तो नहीं की थी कि वो तक़सीम ए हिन्दुस्तान हम ने तो नहीं कि थी हुकूमत के वो भूके भेड़िये , इंसान के क़ातिल फिरंगी साज़िशों में थे हमारे रहनुमा शामिल वो इक काला वरक़ तारीख़ का क्या दे गया हम को तअस्सुब , खौफ़ , दिल शिकनी का साया दे गया हम को बहा जो खून ए नाहक़ , था तुम्हारा भी , हमारा भी लुटा था कारवां दिल का , तुम्हारा भी , हमारा भी मसाइब फ़िरक़ा वाराना , गुनह था चंद लोगों का जो था अम्बार लाशों का , तुम्हारा था , हमारा था हुए थे घर से बेघर जो , वो तुम जो थे , तो हम भी थे फिरंगी साज़िशें जीती थीं , हिन्दुस्तान हारा था तो फिर ये ज़ुल्म कैसा है , कि मुजरिम

नज़रें टिकाए बैठी हूँ कब से मैं ख़्वाब में

नज़रें टिकाए बैठी हूँ कब से मैं ख़्वाब में मंज़र हज़ार सिमटे हैं हर इक हुबाब में यादों के रेगज़ार में फिरते हैं दर ब दर मिलता है इक अजीब सुकूँ इस अज़ाब में बदरंग पन्ना पन्ना है , बिखरा वरक़ वरक़ लिक्खा है एक नाम अभी तक किताब में बीनाई छीन ली गई इस जुर्म में मेरी देखा था इक हसीन नज़ारा जो ख़्वाब में थोड़ी सी झूठ की भी मिलावट तो थी ज़रूर लर्ज़िश सी क्यूँ ये आ गई उस के जवाब में इक तश्नगी का बोझ संभाले लबों प हम कब से भटक रहे हैं वफ़ा के सराब में “ मुमताज़ ” अस्बियत ने सिखाया है ये सबक़ शामिल कहाँ थीं नफ़रतें दिल के निसाब में 

ख़िताब

ऐ मुसलमानो , है तुम से दस्त बस्ता ये ख़िताब दिल पे रख कर हाथ सोचो , फिर मुझे देना जवाब उम्मत ए मुस्लिम की हालत क्यूँ हुई इतनी ख़राब किस लिए अल्लाह ने डाला है हम पर ये अज़ाब कह रहे हैं लोग , बदतर है हमारी ज़िन्दगी पिछड़ी क़ौमों से भी , बदबख़्तों से भी , दलितों से भी सुन के ये सब मन्तक़ें , इक बात ये दिल में उठी हम में ये बे चेहरगी आख़िर कहाँ से आ गई हम दलीतों से भी नीचे ? अल्लाह अल्लाह , ख़ैर हो हाय ये हालत , कि हम से किबरिया का बैर हो ? तुम वतन में रह के भी अपने वतन से ग़ैर हो अब क़दम कोई , कि अपनी भी तबीअत सैर हो कुछ तो सोचो , ज़हन पे अपने भी कुछ तो ज़ोर दो ग़ैर के हाथों में आख़िर क्यूँ तुम अपनी डोर दो अपनी इस तीर शबी को फिर सुनहरी भोर दो फिर उठो इक बार ऐसे , वक़्त को झकझोर दो ये ज़रा सोचो , कि तुम अपनी जड़ों से क्यूँ कटे मसलकों में क्यूँ जुदा हो , क्यूँ हो फ़िर्क़ों में बँटे अब तअस्सुब को समेटो , कुछ तो ये दूरी पटे यक जहत हो जाएं जो हम , तो ये तारीकी हटे हम फ़रेब ए मसलेहत हर बार खाते आए हैं मुल्क के ये रहनुमा हम को नचाते आए हैं कितने

कोई हिकमत न चली, कोई भी दरमाँ न चला

कोई हिकमत न चली , कोई भी दरमाँ न चला पुर नहीं होता किसी तौर मेरे दिल का ख़ला तो तमन्नाओं की क़ुरबानी भी काम आ ही गई सुर्ख़रू हो के चलो आज का सूरज भी ढला मुंतज़िर घड़ियों की राहें जो हुईं लामहदूद लम्हा लम्हा था तवील इतना कि टाले न टला आज भी हम ने तुझे याद किया है जानम दिल के ज़ख़्मों प नमक आज भी जी भर के मला अब हुकूमत में अना की तो यही होना था दिल को बहलाया बहुत , ख़ूब तमन्ना को छला तश्नगी का ये सफ़र और कहाँ ले जाता मुझ को ले आया सराबों में मेरा कर्ब-ओ-बला जब से बाज़ार प जज़्बात ने डाली है गिरफ़्त फिर ज़माने में मोहब्बत का ये सिक्का न चला दिन को “ मुमताज़ ” ख़यालात मुज़िर थे लेकिन रात ख़ामोश हुई जब तो मेरा ज़ेहन जला दरमाँ – इलाज , पुर – भरा हुआ , ख़ला – शून्य , मुंतज़िर – इंतज़ार करने वाले , लामहदूद – जिस की हद न हो , तवील – लंबा , अना – अहं , तश्नगी – प्यास , सराबों में – मृगतृष्णाओं में , कर्ब-ओ-बला – दर्द और मुसीबत , मुज़िर – नुक़सानदेह

रक्खे हों जैसे दिल प शरारे, कुछ इस तरह

रक्खे हों जैसे दिल प शरारे , कुछ इस तरह दिन ज़िन्दगी के हम ने गुज़ारे कुछ इस तरह सहरा की वुसअतों में हो जैसे सराब सा   करती रही हयात इशारे कुछ इस तरह हम से बिछड़ के जैसे बड़ी मुश्किलों में हो माज़ी तड़प के हम को पुकारे कुछ इस तरह तूफ़ाँ से जंग जैसे कि उस का ही जुर्म था कश्ती प हँस रहे थे किनारे कुछ इस तरह हर ज़ाविए से लगती है अब कितनी ख़ूबरु हम ने क़ज़ा के रंग निखारे कुछ इस तरह हस्ती है तार तार , तमन्ना लहू लहू हम ज़िन्दगी की जंग में हारे कुछ इस तरह मिज़गाँ से जैसे टूट के आँसू टपक पड़े टूटे फ़लक से आज सितारे कुछ इस तरह हसरत , उम्मीद , ख़्वाब , वफ़ा , कुछ न बच सका बिखरे मेरे वजूद के पारे कुछ इस तरह “ मुमताज़ ” जल के ख़ाक हुई सारी ज़िन्दगी सुलगे थे आरज़ू के शरारे कुछ इस तरह मिज़गाँ – पलक

नाइन-इलेवन

      पल वो नौ ग्यारह के , वो मजबूरियों का सिलसिला वो क़यामत खेज़ मंज़र , हादसा दर हादसा मौत ने लब्बैक उस दिन कितनी जानों पर कहा कौन कर सकता है आख़िर उन पलों का तजज़िया हादसा कहते हैं किस शै को , बला क्या चीज़ है डूबना सैलाब ए आतिश में भला क्या चीज़ है मौत से आँखें मिलाने की भला हिम्मत है क्या जिन पे गुजरी थी , ये पूछो उन से , ये दहशत है क्या पूछना है गर तो पूछो बूढ़ी माओं से ज़रा जिन के लख्त ए दिल को उन मुर्दा पलों ने खा लिया उन यतीमों से करो दरियाफ़्त , ग़म होता है क्या लम्हों में रहमत का साया जिन के सर से उठ गया है क़ज़ा का ज़ुल्म क्या , बेवाओं को मालूम है अश्क के क़तरों में पिन्हाँ कौन सा मफ़हूम है क्या बताएं , किस क़दर बदबख्त ये मरहूम हैं जो कफ़न क्या , लाश के रेजों से भी महरूम हैं हैं कई ऐसे भी , जिन की ज़िन्दगी की राह में सिर्फ़ आँसू , सिर्फ़ आहें , सिर्फ़ नाले रह गए जिन की तन्हा रूह के जलते सहीफ़े में तो अब बाब ए हसरत के सभी औराक़ काले रह गए जिस जगह टूटी बला ए नागहाँ अफ़लाक से उस ज़मीं के ज़ख्म अश्कों से सभी धोते रहे उस सिफ़र मै