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ख़िताब

ऐ मुसलमानो , है तुम से दस्त बस्ता ये ख़िताब दिल पे रख कर हाथ सोचो , फिर मुझे देना जवाब उम्मत ए मुस्लिम की हालत क्यूँ हुई इतनी ख़राब किस लिए अल्लाह ने डाला है हम पर ये अज़ाब कह रहे हैं लोग , बदतर है हमारी ज़िन्दगी पिछड़ी क़ौमों से भी , बदबख़्तों से भी , दलितों से भी सुन के ये सब मन्तक़ें , इक बात ये दिल में उठी हम में ये बे चेहरगी आख़िर कहाँ से आ गई हम दलीतों से भी नीचे ? अल्लाह अल्लाह , ख़ैर हो हाय ये हालत , कि हम से किबरिया का बैर हो ? तुम वतन में रह के भी अपने वतन से ग़ैर हो अब क़दम कोई , कि अपनी भी तबीअत सैर हो कुछ तो सोचो , ज़हन पे अपने भी कुछ तो ज़ोर दो ग़ैर के हाथों में आख़िर क्यूँ तुम अपनी डोर दो अपनी इस तीर शबी को फिर सुनहरी भोर दो फिर उठो इक बार ऐसे , वक़्त को झकझोर दो ये ज़रा सोचो , कि तुम अपनी जड़ों से क्यूँ कटे मसलकों में क्यूँ जुदा हो , क्यूँ हो फ़िर्क़ों में बँटे अब तअस्सुब को समेटो , कुछ तो ये दूरी पटे यक जहत हो जाएं जो हम , तो ये तारीकी हटे हम फ़रेब ए मसलेहत हर बार खाते आए हैं मुल्क के ये रहनुमा हम को नचाते आए हैं कितने

कोई हिकमत न चली, कोई भी दरमाँ न चला

कोई हिकमत न चली , कोई भी दरमाँ न चला पुर नहीं होता किसी तौर मेरे दिल का ख़ला तो तमन्नाओं की क़ुरबानी भी काम आ ही गई सुर्ख़रू हो के चलो आज का सूरज भी ढला मुंतज़िर घड़ियों की राहें जो हुईं लामहदूद लम्हा लम्हा था तवील इतना कि टाले न टला आज भी हम ने तुझे याद किया है जानम दिल के ज़ख़्मों प नमक आज भी जी भर के मला अब हुकूमत में अना की तो यही होना था दिल को बहलाया बहुत , ख़ूब तमन्ना को छला तश्नगी का ये सफ़र और कहाँ ले जाता मुझ को ले आया सराबों में मेरा कर्ब-ओ-बला जब से बाज़ार प जज़्बात ने डाली है गिरफ़्त फिर ज़माने में मोहब्बत का ये सिक्का न चला दिन को “ मुमताज़ ” ख़यालात मुज़िर थे लेकिन रात ख़ामोश हुई जब तो मेरा ज़ेहन जला दरमाँ – इलाज , पुर – भरा हुआ , ख़ला – शून्य , मुंतज़िर – इंतज़ार करने वाले , लामहदूद – जिस की हद न हो , तवील – लंबा , अना – अहं , तश्नगी – प्यास , सराबों में – मृगतृष्णाओं में , कर्ब-ओ-बला – दर्द और मुसीबत , मुज़िर – नुक़सानदेह

रक्खे हों जैसे दिल प शरारे, कुछ इस तरह

रक्खे हों जैसे दिल प शरारे , कुछ इस तरह दिन ज़िन्दगी के हम ने गुज़ारे कुछ इस तरह सहरा की वुसअतों में हो जैसे सराब सा   करती रही हयात इशारे कुछ इस तरह हम से बिछड़ के जैसे बड़ी मुश्किलों में हो माज़ी तड़प के हम को पुकारे कुछ इस तरह तूफ़ाँ से जंग जैसे कि उस का ही जुर्म था कश्ती प हँस रहे थे किनारे कुछ इस तरह हर ज़ाविए से लगती है अब कितनी ख़ूबरु हम ने क़ज़ा के रंग निखारे कुछ इस तरह हस्ती है तार तार , तमन्ना लहू लहू हम ज़िन्दगी की जंग में हारे कुछ इस तरह मिज़गाँ से जैसे टूट के आँसू टपक पड़े टूटे फ़लक से आज सितारे कुछ इस तरह हसरत , उम्मीद , ख़्वाब , वफ़ा , कुछ न बच सका बिखरे मेरे वजूद के पारे कुछ इस तरह “ मुमताज़ ” जल के ख़ाक हुई सारी ज़िन्दगी सुलगे थे आरज़ू के शरारे कुछ इस तरह मिज़गाँ – पलक

नाइन-इलेवन

      पल वो नौ ग्यारह के , वो मजबूरियों का सिलसिला वो क़यामत खेज़ मंज़र , हादसा दर हादसा मौत ने लब्बैक उस दिन कितनी जानों पर कहा कौन कर सकता है आख़िर उन पलों का तजज़िया हादसा कहते हैं किस शै को , बला क्या चीज़ है डूबना सैलाब ए आतिश में भला क्या चीज़ है मौत से आँखें मिलाने की भला हिम्मत है क्या जिन पे गुजरी थी , ये पूछो उन से , ये दहशत है क्या पूछना है गर तो पूछो बूढ़ी माओं से ज़रा जिन के लख्त ए दिल को उन मुर्दा पलों ने खा लिया उन यतीमों से करो दरियाफ़्त , ग़म होता है क्या लम्हों में रहमत का साया जिन के सर से उठ गया है क़ज़ा का ज़ुल्म क्या , बेवाओं को मालूम है अश्क के क़तरों में पिन्हाँ कौन सा मफ़हूम है क्या बताएं , किस क़दर बदबख्त ये मरहूम हैं जो कफ़न क्या , लाश के रेजों से भी महरूम हैं हैं कई ऐसे भी , जिन की ज़िन्दगी की राह में सिर्फ़ आँसू , सिर्फ़ आहें , सिर्फ़ नाले रह गए जिन की तन्हा रूह के जलते सहीफ़े में तो अब बाब ए हसरत के सभी औराक़ काले रह गए जिस जगह टूटी बला ए नागहाँ अफ़लाक से उस ज़मीं के ज़ख्म अश्कों से सभी धोते रहे उस सिफ़र मै

ग्राउंड ज़ीरो

सुबह की पेशानी पर चुनता था अफ़शाँ आफ़ताब कारगाह-ए-यौम-ए-नौ का खुल चुका था पहला बाब जाग उठी थी , लेती थी अंगड़ाइयाँ सुबह-ए-ख़िराम   अपने अपने काम पर सब चल दिये थे ख़ास-ओ-आम अपनी अपनी फ़िक्र-ओ-फ़न में हौसले महलूल थे बूढ़े - बच्चे , मर्द-ओ-ज़न सब काम में मशग़ूल थे बस किसी भी आम से दिन की तरह ये दिन भी था किस को था मालूम , होगा आज इक महशर बपा एक तय्यारा हवा में झूमता उड़ता हुआ इक फ़लक आग़ोश इमारत से लो वो टकरा गया इस धमाके से इमारत की इमारत काँप उठी एक पल को आलम-ए-इन्साँ की ग़ैरत काँप उठी यूँ वहाँ बरपा हुआ इक आग का सैलाब सा जैसे नाज़िल हो गई हो आस्माँ से इक बला हर कोई सकते में था , सब के ख़ता औसान थे नागहानी इस बला से मर्द-ओ-ज़न हैरान थे चार सू बरपा हुआ इक शोर , दहशत छा गई यूँ हुआ रक़्स-ए-क़ज़ा , हर जान लब पर आ गई रेज़े इंसानी बदन के चार सू बिखरे हुए हो गए मिस्मार हर इक ज़िन्दगी के ज़ाविए हर तरफ़ बादल धुएँ के , आग की दीवार सी खा गई कितनी ही जानों को ये दहशत मार सी जिस को जो रस्ता मिला , उस सिम्त भागा हर बशर कोई तो खिड़की से कूदा , कोई पहुंचा बाम पर इत

चेहरा पढ़ लो, लहजा देखो

चेहरा पढ़ लो , लहजा देखो दिल की बातें यूँ भी समझो फिर खोलो यादों की परतें दिल के सारे ज़ख़्म कुरेदो अब कुछ दिन जीने दो मुझ को ऐ दिल की बेजान ख़राशो रंजिश की लौ माँद हुई है फिर कोई इल्ज़ाम तराशो सुलगा दो हस्ती का जंगल जलते हुए बेचैन उजालो दर्द तुम्हारा भी देखूँगी दम तो लो ऐ पाँव के छालो ख़त्म हुई हर एक बलन्दी ऐ मेरी बेबाक उड़ानो तंग दिलों की इस बस्ती में उल्फ़त की ख़ैरात न माँगो मग़रूरीयत के पैकर पर मजबूरी के ज़ख़्म भी देखो हर्फ़ को सच्चे मानी दे कर लफ़्ज़ों का एहसान उतारो थोड़ा तो आराम अता हो ऐ मेरे “ मुमताज़ ” इरादों

दुलहन रात दिवाली की

डाल सियह ज़ुल्फ़ों में अफ़शाँ दुलहन रात दिवाली की लाई दिलों में लाखों ख़ुशियाँ रौशन रात दिवाली की दीपशिखाओं   की   अठखेली ,   हँसती   हुई   आतिशबाज़ी आग   की   लौ   से   खेल   रही   है   बैरन   रात   दिवाली   की फैला   है   इक   रंग   सुनहरा   आसमान   की   कालिख   पर तारीकी   ने   नूर   की   ओढ़ी   चिलमन   रात   दिवाली   की नक़्क़ाशी   से   झाँक   रहा   है   हुनर   हिनाई   हाथों   का बिखरे   रंग   न   जाने   कितने   आँगन   रात   दिवाली   की आँखों   की   गहराई   परेशाँ ,   ज़ुल्फ़ों   की   नागन   ख़ामोश ताश   के   पत्तों   में   उलझे   हैं   साजन   रात   दिवाली   की छोटे   घर   के   छोटे   लोगों   की   छोटी   सी   ख़ुशियाँ   हैं रामकली   ले   कर   आई   है   उतरन   रात   दिवाली की गुड़िया की शादी का ख़र्चा , गुड्डू के कालेज की फ़ीस छोड़ो यार , हटाओ सारे टेंशन रात दिवाली की आज की शब कर कोई करिश्मा , ऐ रब , ऐ अल्लाह मेरे लौटा दे " मुमताज़ " हमारा बचपन रात दिवाली की