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ग्राउंड ज़ीरो

सुबह की पेशानी पर चुनता था अफ़शाँ आफ़ताब कारगाह-ए-यौम-ए-नौ का खुल चुका था पहला बाब जाग उठी थी , लेती थी अंगड़ाइयाँ सुबह-ए-ख़िराम   अपने अपने काम पर सब चल दिये थे ख़ास-ओ-आम अपनी अपनी फ़िक्र-ओ-फ़न में हौसले महलूल थे बूढ़े - बच्चे , मर्द-ओ-ज़न सब काम में मशग़ूल थे बस किसी भी आम से दिन की तरह ये दिन भी था किस को था मालूम , होगा आज इक महशर बपा एक तय्यारा हवा में झूमता उड़ता हुआ इक फ़लक आग़ोश इमारत से लो वो टकरा गया इस धमाके से इमारत की इमारत काँप उठी एक पल को आलम-ए-इन्साँ की ग़ैरत काँप उठी यूँ वहाँ बरपा हुआ इक आग का सैलाब सा जैसे नाज़िल हो गई हो आस्माँ से इक बला हर कोई सकते में था , सब के ख़ता औसान थे नागहानी इस बला से मर्द-ओ-ज़न हैरान थे चार सू बरपा हुआ इक शोर , दहशत छा गई यूँ हुआ रक़्स-ए-क़ज़ा , हर जान लब पर आ गई रेज़े इंसानी बदन के चार सू बिखरे हुए हो गए मिस्मार हर इक ज़िन्दगी के ज़ाविए हर तरफ़ बादल धुएँ के , आग की दीवार सी खा गई कितनी ही जानों को ये दहशत मार सी जिस को जो रस्ता मिला , उस सिम्त भागा हर बशर कोई तो खिड़की से कूदा , कोई पहुंचा बाम पर इत

चेहरा पढ़ लो, लहजा देखो

चेहरा पढ़ लो , लहजा देखो दिल की बातें यूँ भी समझो फिर खोलो यादों की परतें दिल के सारे ज़ख़्म कुरेदो अब कुछ दिन जीने दो मुझ को ऐ दिल की बेजान ख़राशो रंजिश की लौ माँद हुई है फिर कोई इल्ज़ाम तराशो सुलगा दो हस्ती का जंगल जलते हुए बेचैन उजालो दर्द तुम्हारा भी देखूँगी दम तो लो ऐ पाँव के छालो ख़त्म हुई हर एक बलन्दी ऐ मेरी बेबाक उड़ानो तंग दिलों की इस बस्ती में उल्फ़त की ख़ैरात न माँगो मग़रूरीयत के पैकर पर मजबूरी के ज़ख़्म भी देखो हर्फ़ को सच्चे मानी दे कर लफ़्ज़ों का एहसान उतारो थोड़ा तो आराम अता हो ऐ मेरे “ मुमताज़ ” इरादों

दुलहन रात दिवाली की

डाल सियह ज़ुल्फ़ों में अफ़शाँ दुलहन रात दिवाली की लाई दिलों में लाखों ख़ुशियाँ रौशन रात दिवाली की दीपशिखाओं   की   अठखेली ,   हँसती   हुई   आतिशबाज़ी आग   की   लौ   से   खेल   रही   है   बैरन   रात   दिवाली   की फैला   है   इक   रंग   सुनहरा   आसमान   की   कालिख   पर तारीकी   ने   नूर   की   ओढ़ी   चिलमन   रात   दिवाली   की नक़्क़ाशी   से   झाँक   रहा   है   हुनर   हिनाई   हाथों   का बिखरे   रंग   न   जाने   कितने   आँगन   रात   दिवाली   की आँखों   की   गहराई   परेशाँ ,   ज़ुल्फ़ों   की   नागन   ख़ामोश ताश   के   पत्तों   में   उलझे   हैं   साजन   रात   दिवाली   की छोटे   घर   के   छोटे   लोगों   की   छोटी   सी   ख़ुशियाँ   हैं रामकली   ले   कर   आई   है   उतरन   रात   दिवाली की गुड़िया की शादी का ख़र्चा , गुड्डू के कालेज की फ़ीस छोड़ो यार , हटाओ सारे टेंशन रात दिवाली की आज की शब कर कोई करिश्मा , ऐ रब , ऐ अल्लाह मेरे लौटा दे " मुमताज़ " हमारा बचपन रात दिवाली की

लेकिन

१. आबिदा देखा ? वही था न ? वही तो था वो पास से गुज़रा , मगर ऐसे कि देखा भी नहीं देखना कैसी सज़ा दूँगी मैं इस को , अब के आएगा मिलने तो मैं भी इसे देखूँगी नहीं देखना तू कि मैं इस से कभी बोलूंगी नहीं २. जाने वो कौन सी उलझन में घिरा होगा कल जब कि कल राह पे मुझ को भी न देखा उस ने जाने क्या ग़म है उसे कैसी कशाकश में है वो हाय! मर जाऊं कि मैं ने उसे पूछा भी नहीं काश ग़म उस के कलेजे में छुपा लेती मैं अब वो मिलता तो उसे दिल से लगा लेती मैं ३. ऐसा लगता है किसी और का हो बैठा है वो इसलिए उस ने मुझे राह में देखा भी नहीं मुझ को मालूम था ऐसी ही है ये मर्द की ज़ात कैसे हँस हँस के पड़ोसन से किये जाता था बात और कहता है , मैं बेवजह का शक करती हूँ ? उस पे इलज़ाम बिला वजह के मैं धरती हूँ ४. देखना तू कि मैं उस से न कभी बोलूंगी लाख समझाए मगर कुछ न सुनूंगी मैं भी इक जहाँ उस ने नया अपना बनाया है अगर सात रंगों के कई ख़्वाब बुनूँगी मैं भी ५. आज का वादा था लेकिन नहीं आया अब तक जाने क्या बात है क्यूँ उस ने बदल लीं नज़रें एक ख़त लिक्खूं उस

आवारगी नसीब के सब ज़ावियों में थी

आवारगी नसीब के सब ज़ावियों में थी मंज़िल क़दम के नीचे थी , मैं रास्तों में थी जिस को लहू से सींचा था वो शाख़-ए-बासमर हमसाए के मकान की अंगनाइयों में थी हस्ती तमाम जलती रही जिस में उम्र भर दोज़ख़ की आग रूह की गहराइयों में थी माना कि टूट टूट के बिखरी तो ये भी है शामिल तो ज़िन्दगी भी मगर साज़िशों में थी वहशत में जज़्ब होती गईं सारी मस्तियाँ अब वो कशिश कहाँ जो कभी बारिशों में थी क़ातिल की आँख में भी थी दहशत की इक झलक जो धार ख़ून में थी , कहाँ ख़ंजरों में थी रोए थे मेरे हाल प काँटे भी राह के शिद्दत तपक की ऐसी मेरे आबलों में थी कैसा ये फ़ासला था कि हर पल वो साथ था उल्फ़त की इक तड़प भी कहीं रंजिशों में थी बच कर तो आ गए थे किनारे प हम मगर तूफ़ाँ की हर अदा भी इन्हीं साहिलों में थी आख़िर को रिश्ते नातों में दीमक सी लग गई कैसी अजीब रस्म-ए-अदावत घरों में थी हर चंद गिर के हम को तो मिलना था ख़ाक में “ मुमताज़ ” उम्र भर की थकन इन परों में थी 

ये लकीरें हैं अयाँ रूह की वीरानी से

ये लकीरें हैं अयाँ रूह की वीरानी से देखते क्या हो मेरे चेहरे को हैरानी से یہ لکیریں ہیں عیاں روح کی ویرانی سے دیکھتے کیا ہو مرے چہرے کو ہیرانی سے डूब कर हम को मिला दिल के ख़ज़ीने का सुराग़ फ़ैज़ हम को ये मिला मौजों की तुग़ियानी से ڈوب کر ہم کو ملا دل کے خزینے کا سراغ فیض ہم کو یہ ملا موجوں کی تغیانی سے ज़हन उरियाँ है , नज़र उरियाँ है , बातें उरियाँ रूह उकता गई इस दौर की उरियानी से ذہن عریاں ہے، نظر عریاں ہے، باتیں عریاں روح اُکتا گیئ اِس دور کی عریانی سے ज़िंदगी कब से सदा देती है , अब लौट भी चल क्या मिलेगा तुझे सहरा ओं की गरदानी से زندگی کب سے صدا دیتی ہے، اب لوٹ بھی چل کیا ملیگا تجھے صحراؤں کی گردانی سے एक हो जाते हैं ख़ून और पसीना यारो रिज़्क़ मिलता नहीं इस दौर में आसानी से ایک ہو جاتے ہیں خون اور پاسینہ یارو رزق ملتا نہیں اِس دور میں آسانی سے हम को मिट कर भी रज़ा तेरी मयस्सर न हुई कैसे जाएगी ये सिलवट तेरी पेशानी से ہم کو مِٹ کر بھی رضا تیری میسر نہ ہویئ کیسے جایۓگی یہ سلوٹ تری پیشانی سے जिंदगी का भी हर इक बाब पढ़ा जाएगा थोड़ी मोह

घुटा जाता है क़ैद-ए-ज़हन में तो दम मोहब्बत का

घुटा जाता है क़ैद-ए-ज़हन में तो दम मोहब्बत का हर इक जज़्बा यहाँ मोहताज है दिल की रिफ़ाक़त का नियाज़-ए-शौक़ , अब तो इम्तेहाँ है तेरी रहमत का सिला अब चाहती है ज़िन्दगी अपनी इबादत का अगर दिल है तो फिर उस में मोहब्बत ही मोहब्बत हो दिलों की सल्तनत में दोस्तो , क्या काम नफ़रत का वही इक बार बस उजड़ी थी दुनिया आरज़ूओं की तमन्ना कर रही है आज भी इक़रार दहशत का सुलगती ज़ात के सहरा में आई थीं बहारें भी हमारी ज़िन्दगी पर क़र्ज़ है उस एक साअत का अयाँ हैं यूँ तो उस की ज़ात के सौ ज़ाविए हम पर चलो ये ज़ाविया भी देख लें उस की अदावत का ग़ज़ब का शोर है , हस्ती की किरचें बिखरी जाती हैं तलातुम आज तो दिल में उठा है यार , शिद्दत का तलातुम में लहू के रेज़ा रेज़ा डूबा जाता है तमाशा देखती है ज़िन्दगी दिल की हलाकत का मोहब्बत की ये राहें जलते सेहरा से गुज़रती हैं हमें भी पास आख़िर रखना होगा इस रिवायत का हमारी ज़िन्दगी पर क्यूँ भला अग़यार का हक़ हो किया है अब के हम ने फ़ैसला ख़ुद अपनी क़िस्मत का ज़मीरों का भी सरमाया जहाँ नीलाम हो जाए हमें “ मुमताज़ ” रास आया न ये बाज़ार शोहरत का