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चमक उट्ठे मेहेर सी हर सतर ये है दुआ यारब

चमक उट्ठे मेहेर सी हर सतर ये है दुआ यारब शुआ बन जाए ये अदना शरर ये है दुआ यारब लिया है अपने कांधे पर जो ये बार-ए-गरां हम ने ये कार-ए-ख़ैर हो अब कारगर ये है दुआ यारब हमारी काविशों को वो करामत दे मेरे मौला अमर हो जाए हम सब का हुनर ये है दुआ यारब हमारा ज़ाहिर-ओ-बातिन हो तेरे नूर से रौशन तू बन कर हुस्न हम सब में उतर ये है दुआ यारब जज़ा-ए-ख़ैर दे “ मुमताज़ ” बेकल* और नीरज* को दुआओं में मेरी रख दे असर ये है दुआ यारब बेकल* और नीरज* - बेकल उत्साही और गोपाल दास नीरज , जो इस प्रोजेक्ट में साथ थे।

शाम

वक़्त के ज़र्रों प जब हो मेहर-ए-ताबाँ का ज़वाल शब की तारीकी से हो दिन के उजाले का विसाल करवटें जब ले रहा हो रोज़-ओ-शब का ये निज़ाम नूर का तब खोल कर पर्दा निकाल आती है शाम अब्र के रुख़ पर गुलाबी रंग फैलाती हुई इक हसीना की तरह लहराती इठलाती हुई चहचहाते पंछियों के रूप में गाती हुई आस्माँ के रुख़ पे अपनी जुल्फ़ बिखराती हुई मेहर की किरनों की अफ़शाँ जुल्फ़ में चुनती हुई बादलों से फिर उफ़क़ पर लाल रंग बुनती हुई मुस्कराती है , लजाती है , जलाती है दिये फिर सियाही से सजा देती है दिन के ज़ाविए रंग पहले भरती है क़ुदरत की तसवीरों में शाम रफ़्ता रफ़्ता घेर लेती हैं सभी दीवार-ओ-बाम चंद लम्हों में उतरने लगती है फिर रात में ग़र्क़ हो जाती है आख़िर दरिया-ए-ज़ुल्मात में हो हसीं वो लाख , वो कितनी भी गुलअंदाम हो हर सुनहरी शाम का लेकिन यही अंजाम हो हुस्न की रंगीनियों पर भी फ़ना आती ही है कोई भी शय हो , कि वो अंजाम को पाती ही है मेहर-ए-ताबाँ-चमकता हुआ सूरज , ज़वाल-पतन , विसाल-मिलन , रोज़-ओ-शब-रात और दिन , निज़ाम-व्यवस्था , अब्र-बादल , मेहर-सूरज , अफ़शाँ- glitter dust,

सदा मसरूर रहते हैं मोहब्बत के ये दीवाने

सदा मसरूर रहते हैं मोहब्बत के ये दीवाने इसी जज़्बे में खुलते हैं न जाने कितने मैख़ाने मुझे ईमान का दावा अगर हो भी तो कैसे हो बना रक्खे हैं दिल में भी मोहब्बत ने जो बुतख़ाने अभी माज़ी के ख़्वाबों को ज़रा ख़ामोश रहने दो अभी तो क़ैद कर रक्खा है हम को फ़िक्र-ए-फ़र्दा ने न जाने मोड़ कैसा आ गया है दिल की राहों में सभी चेहरे परेशाँ हैं , सभी रस्ते हैं अंजाने हज़ारों अजनबी साए लिपट कर रो पड़े हम से हम आए थे यहाँ दो चार पल को राहतें पाने ज़माने के तक़ाज़ों ने तराशा है मुझे कैसे कि आईना भी मेरा अब मेरी सूरत न पहचाने मेरी बेगानगी ने इस को भी तड़पा दिया आख़िर तमन्ना कब से बैठी रो रही है मेरे सिरहाने कोई जज़्बा न ग़म , बस बेहिसी ही बेहिसी है अब हमें कैसी जगह पहुँचा दिया ज़ख़्मी तमन्ना ने क़फ़स में छटपटाता है जुनूँ परवाज़ की ख़ातिर तसव्वर बुन रहा है कितने ही बेबाक अफ़साने   जुनूँ के वास्ते “ मुमताज़ ” हर महफ़िल में ख़िल्वत है जहाँ दिल है , वहीं हम हैं , वहीं लाखों हैं वीराने 

रक्षा बंधन

1. फिर पीहर की सुध आई सखी फिर श्रावणी का त्योहार है आया उल्लास , उजास , प्रवास , सुवास के अगणित रंग मनोहर लाया सब सखियाँ बाबुल देस चलीं पर नाम मेरे संदेस है आया तुझे होवे बधाई कि भाई तेरा इस देस की सरहद पर काम आया मेरे हाथ की राखी भीग चली इन आँखों ने जब जल बरसाया मन बोला मेरे भैया तुम ने रक्षा बंधन का फर्ज़ निभाया 2 . ऐ जवानों देश की धरती को तुम पे नाज़ है हर बहन बेटी की , हर माँ की यही आवाज़ है जागता है जब तलक सरहद पे अपना लाडला छू नहीं सकती हमें कोई मुसीबत या बला तुम हो रक्षक देश के , सरहद के पहरेदार हो और रक्षा सूत्र के सच्चे तुम्हीं हक़दार हो

नई सुबह

ये इक एहसास मेरे दिल प दस्तक दे रहा है जो ये मीठा दर्द सा अंगड़ाई मुझ में ले रहा है जो बहारों की ये आहट जो मेरे गुलशन से आती है तजल्ली रेज़ा रेज़ा कौन से ख़िरमन से आती है फ़रेब-ए-ज़िन्दगी फिर रफ़्ता रफ़्ता खा रही हूँ मैं न जाने कौन सी मंज़िल की जानिब जा रही हूँ मैं नज़र जिस सिम्त डालूँ मैं , बहारें ही बहारें हैं मेरे हर गाम से लिपटे हुए लाखों शरारे हैं ये लगता है कि शिरियानों में बिजली रक़्स करती है गुल-ए-तनहाई पर ये कौन तितली रक़्स करती है हुई बेदार हर हसरत , उम्मीदें हाथ मलती हैं तसव्वर की ज़मीं पर शबनमी बूँदें मचलती हैं तख़य्युल की सभी शाख़ों प ख़्वाबों का बसेरा है नया दिल है , नई मैं हूँ , नया सा ये सवेरा है

ज़हन-ओ-दिल में था, मगर रूह में शामिल होता

ज़हन-ओ-दिल में था , मगर रूह में शामिल होता मेरा सरमाया वही जज़्बा-ए-कामिल होता मैं कशाकश के अज़ाबों से न गुज़री होती काश दिल मेरा तेरे अज़्म से ग़ाफ़िल होता तोड़ने लगती अगर रूह ये ज़ंजीर-ए-हयात साँस की लय प ये दिल रक़्स पे माइल होता जुस्तजू में कभी मुझ तक भी वो आता यारब मेरा दिल भी तो कभी हासिल-ए-मंज़िल होता बेवफाई की सियाही से जो होता रौशन मुझ में ऐ काश वो इक रंग भी शामिल होता इक ज़रा दर्द का अंदाज़ा उसे भी होता मैं जो टूटी थी तो वो भी ज़रा बिस्मिल होता देना पड़ता तुझे हर एक तबाही का हिसाब ऐ मुक़द्दर तू कभी मेरे मुक़ाबिल होता खेलती रहती हूँ तूफ़ानों से लेकिन “ मुमताज़ ” क्या बुरा था जो मेरा भी कोई साहिल होता  

इस दौर-ए-तरक़्क़ी में ये रफ़्तार के आँसू

इस दौर-ए-तरक़्क़ी में ये रफ़्तार के आँसू देखे हैं कभी तुम ने ? किसी ग़ार के आँसू फ़ुरसत है किसे , देखे किसी यार के आँसू देखो , न बहाया करो बेकार के आँसू ग़ाज़े की तरह सजते हैं रुख़सार के आँसू क़ातिल से कहो , पोंछे न तलवार के आँसू इस टूटते रिश्ते की ख़लिश किस से छुपी थी लहजे में नज़र आए थे गुफ़्तार के आँसू चिड़ियों ने तो घर छोड़ा था परवाज़ की धुन में पत्तों प जमे रह गए अशजार के आँसू ये ज़ख़्मी खंडर , गुमशुदा तहज़ीब की लाशें बिखरे हैं हर इक ज़र्रे पे अदवार के आँसू हर लफ़्ज़ चमकता है ग़ज़ल का कि यक़ीनन “ मुमताज़ ” अयाँ होते हैं अनवार के आँसू