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ज़मीन-ए-दिल को कब से धो रही है

ज़मीन-ए-दिल को कब से धो रही है मोहब्बत चुपके चुपके रो रही है तमन्ना की ज़मीं पर लम्हा लम्हा नज़र शबनम की फ़सलें बो रही है ये दिल माने न माने , सच है लेकिन हमें उस की तमन्ना तो रही है हमें ख़ुद में ही भटकाए मुसलसल हमेशा जुस्तजू सी जो रही है यहाँ बस इक वही रहता है कब से नज़र ये बोझ अब तक ढो रही है हमें जो ले के आई थी यहाँ तक वो तन्हा राह भी अब खो रही है न जाने कब यक़ीं आएगा उस को अभी तक आज़माइश हो रही है गिला “ मुमताज़ ” दुनिया से करें क्या कि क़िस्मत ही हमारी सो रही है

करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें

करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें बहुत हो गईं दिल दुखाने की बातें वो करते रहे ज़ुल्म ढाने की बातें वो तीर-ए-नज़र , वो निशाने की बातें ज़माना तो जीने भी देगा न हम को कहाँ तक सुनोगे ज़माने की बातें हटाओ भी , क्या ले के बैठे हो जानम ये खोने के शिकवे , ये पाने की बातें ये ताने , ये तिश्ने , ये शिकवे , ये नाले ये करते हो क्यूँ दिल जलाने की बातें यहाँ कौन देता है जाँ किस की ख़ातिर किताबी हैं ये जाँ लुटाने की बातें चलो छोड़ो “ मुमताज़ ” अब मान जाओ भुला दो ये सारी भुलाने की बातें

अगर नालाँ हो हम से, जा रहो ग़ैरों के साए में

अगर नालाँ हो हम से , जा रहो ग़ैरों के साए में भला रक्खा ही क्या है रोज़ की इस हाय हाए में नहीं बदला अगर तो रंग इस दिल का नहीं बदला मुसाफ़िर आते जाते ही रहे दिल की सराए में बिल आख़िर बेहिसी ने डाल दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें न कोई फ़र्क़ अब बाक़ी रहा अपने पराए में हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए प अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में मयस्सर है हमें हर बेशक़ीमत शय मगर यारो कहाँ वो लुत्फ़ जो था गाँव की अदरक की चाए में जहाँ से छुप छुपा कर आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ दो आलम की पनाहें हैं तेरी पलकों के साए में निबाहें किस तरह “ मुमताज़ ” हम इस शहर-ए-हसरत में हज़ारों ख़्वाहिशें बस्ती हैं उल्फ़त के बसाए में

दश्त-ओ-सहरा-ओ-समन्दर सभी घर ले आए

दश्त-ओ-सहरा-ओ-समन्दर सभी घर ले आए अब के हम बाँध के क़दमों में सफ़र ले आए कब तही दस्त हम आए हैं तेरी महफ़िल से ज़ख़्म ले आए , कभी ख़ून-ए-जिगर ले आए हो रही थी अभी परवाज़ बलन्दी की तरफ़ लोग ख़ातिर के लिए तीर-ओ-तबर ले आए कोई दावा , न इरादा , न तमन्ना , न हुनर हम में वो बात कहाँ है कि असर ले आए है यहाँ कितनी तजल्ली कि नज़र क़ासिर है मेरे जज़्बात मुझे आज किधर ले आए देखने भी न दिया जिसने नज़र भर के उसे हम कि हमराह वही दीदा-ए-तर ले आए टूट कर बिखरे पर-ओ-बाल हवाओं में मगर  हम ने परवाज़ जो की , शम्स-ओ-क़मर ले आए डर के तुग़ियानी से ठहरे हैं जो , कह दो उन से हम समन्दर में जो उतरे तो गोहर ले आए अपनी राहों में सियाही का बसेरा था  मगर हम अँधेरों से भी “ मुमताज़ ” सहर ले आए    

बाज़ी -मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

और फिर अंजाम वही हुआ...... एक बार फिर नतीजा वही निकला...... एक बार फिर वह यह बाज़ी हार गई। उसका दिल टुकड़ा टुकड़ा हो गया था और हर एक टुकड़ा ख़ून के आँसू रो रहा था। सच तो यह था....कि उसे अब तक यक़ीन नहीं हो रहा था कि अब वह उस की ज़िन्दगी में शामिल नहीं रहा था...... लेकिन सच तो सच था...... उस ने अपना ध्यान बँटाने के लिए टीवी ऑन कर लिया , कुछ देर तक यूँ ही चैनल पर चैनल बदलती रही , एक चैनल पर कॉमेडी फिल्म आ रही थी , वह वहीं रुक गई , “ यह ठीक है , शायद कॉमेडी से उस की ट्रैजिडि का एहसास कुछ कम हो जाए... ” उस ने सोचा। टीवी पर फिल्म चल रही थी , दरख़्शाँ की आँखें टीवी के स्क्रीन पर जमी थीं लेकिन वह फ़िल्म नहीं देख रही थी , उस के ज़हन में तो कोई और ही फ़िल्म चल रही थी। गुज़िश्ता ज़िन्दगी के तितर बितर से लम्हे उसकी आँखों के सामने रक़्स कर रहे थे....और हर लम्हे में एक सवाल पोशीदा था। क्यूँ.....क्यूँ.......क्यूँ........ ? और इस क्यूँ का जवाब उसे आज तक नहीं मिला था। दरख़्शाँ..... ख़ूबसूरत......ज़हीन......कामयाब.....   अपने हज़ारों दीवानों के दिलों की मलिका.... उस की एक झलक पाने को

धड़कनें चुभने लगी हैं, दिल में कितना दर्द है

धड़कनें चुभने लगी हैं , दिल में कितना दर्द है टूटते दिल की सदा भी आज कितनी सर्द है बेबसी के ख़ून से धोना पड़ेगा अब इसे वक़्त के रुख़ पर जमी जो बेहिसी की गर्द है बोझ फ़ितनासाज़ियों का ढो रहे हैं कब से हम जिस की पाई है सज़ा हम ने , गुनह नाकर्द है ज़ब्त की लू से ज़मीं की हसरतें कुम्हला गईं धूप की शिद्दत से चेहरा हर शजर का ज़र्द है छीन ले फ़ितनागरों के हाथ से सब मशअलें इन दहकती बस्तियों में क्या कोई भी मर्द है ? दिल में रौशन शोला - ए - एहसास कब का बुझ गया हसरतें ख़ामोश हैं , अब तो लहू भी सर्द है अब कहाँ जाएँ तमन्नाओं की गठरी ले के हम हर कोई दुश्मन हुआ है , मुनहरिफ़ हर फ़र्द है जुस्तजू कैसी है , किस शय की है मुझ को आरज़ू मुस्तक़िल बेचैन रखता है , जुनूँ बेदर्द है   ऐसा लगता है कि सदियों से ये दिल वीरान है आरज़ूओं पर जमी " मुमताज़ " कैसी गर्द है     

कभी तो होगा उसपर भी असर, आहिस्ता-आहिस्ता

कभी तो होगा उसपर भी असर , आहिस्ता - आहिस्ता तुलू होगी अंधेरे से सहर.... आहिस्ता..... आहिस्ता हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हम को किधर जाना था , चल निकले किधर , आहिस्ता आहिस्ता लगी है ख़ाक उड़ने , अब ज़मीन-ए-दिल में सहरा है लगे हैं सूखने सारे शजर , आहिस्ता....आहिस्ता.... उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है बना जाता है शो ’ ला इक शरर आहिस्ता आहिस्ता चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता लहू दिल का पिला कर पालते हैं फ़न की कोंपल को ये पौधा बन ही जाएगा शजर आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठते हैं लेकिन रास्ता तय ही नहीं होता “ कि हरकत तेज़ तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता ” अगर है जुस्तजू तुझ को मोहब्बत के ख़ज़ाने की तो फिर “ मुमताज़ ” धड़कन में उतर आहिस्ता आहिस्ता