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दश्त-ओ-सहरा-ओ-समन्दर सभी घर ले आए

दश्त-ओ-सहरा-ओ-समन्दर सभी घर ले आए अब के हम बाँध के क़दमों में सफ़र ले आए कब तही दस्त हम आए हैं तेरी महफ़िल से ज़ख़्म ले आए , कभी ख़ून-ए-जिगर ले आए हो रही थी अभी परवाज़ बलन्दी की तरफ़ लोग ख़ातिर के लिए तीर-ओ-तबर ले आए कोई दावा , न इरादा , न तमन्ना , न हुनर हम में वो बात कहाँ है कि असर ले आए है यहाँ कितनी तजल्ली कि नज़र क़ासिर है मेरे जज़्बात मुझे आज किधर ले आए देखने भी न दिया जिसने नज़र भर के उसे हम कि हमराह वही दीदा-ए-तर ले आए टूट कर बिखरे पर-ओ-बाल हवाओं में मगर  हम ने परवाज़ जो की , शम्स-ओ-क़मर ले आए डर के तुग़ियानी से ठहरे हैं जो , कह दो उन से हम समन्दर में जो उतरे तो गोहर ले आए अपनी राहों में सियाही का बसेरा था  मगर हम अँधेरों से भी “ मुमताज़ ” सहर ले आए    

बाज़ी -मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

और फिर अंजाम वही हुआ...... एक बार फिर नतीजा वही निकला...... एक बार फिर वह यह बाज़ी हार गई। उसका दिल टुकड़ा टुकड़ा हो गया था और हर एक टुकड़ा ख़ून के आँसू रो रहा था। सच तो यह था....कि उसे अब तक यक़ीन नहीं हो रहा था कि अब वह उस की ज़िन्दगी में शामिल नहीं रहा था...... लेकिन सच तो सच था...... उस ने अपना ध्यान बँटाने के लिए टीवी ऑन कर लिया , कुछ देर तक यूँ ही चैनल पर चैनल बदलती रही , एक चैनल पर कॉमेडी फिल्म आ रही थी , वह वहीं रुक गई , “ यह ठीक है , शायद कॉमेडी से उस की ट्रैजिडि का एहसास कुछ कम हो जाए... ” उस ने सोचा। टीवी पर फिल्म चल रही थी , दरख़्शाँ की आँखें टीवी के स्क्रीन पर जमी थीं लेकिन वह फ़िल्म नहीं देख रही थी , उस के ज़हन में तो कोई और ही फ़िल्म चल रही थी। गुज़िश्ता ज़िन्दगी के तितर बितर से लम्हे उसकी आँखों के सामने रक़्स कर रहे थे....और हर लम्हे में एक सवाल पोशीदा था। क्यूँ.....क्यूँ.......क्यूँ........ ? और इस क्यूँ का जवाब उसे आज तक नहीं मिला था। दरख़्शाँ..... ख़ूबसूरत......ज़हीन......कामयाब.....   अपने हज़ारों दीवानों के दिलों की मलिका.... उस की एक झलक पाने को

धड़कनें चुभने लगी हैं, दिल में कितना दर्द है

धड़कनें चुभने लगी हैं , दिल में कितना दर्द है टूटते दिल की सदा भी आज कितनी सर्द है बेबसी के ख़ून से धोना पड़ेगा अब इसे वक़्त के रुख़ पर जमी जो बेहिसी की गर्द है बोझ फ़ितनासाज़ियों का ढो रहे हैं कब से हम जिस की पाई है सज़ा हम ने , गुनह नाकर्द है ज़ब्त की लू से ज़मीं की हसरतें कुम्हला गईं धूप की शिद्दत से चेहरा हर शजर का ज़र्द है छीन ले फ़ितनागरों के हाथ से सब मशअलें इन दहकती बस्तियों में क्या कोई भी मर्द है ? दिल में रौशन शोला - ए - एहसास कब का बुझ गया हसरतें ख़ामोश हैं , अब तो लहू भी सर्द है अब कहाँ जाएँ तमन्नाओं की गठरी ले के हम हर कोई दुश्मन हुआ है , मुनहरिफ़ हर फ़र्द है जुस्तजू कैसी है , किस शय की है मुझ को आरज़ू मुस्तक़िल बेचैन रखता है , जुनूँ बेदर्द है   ऐसा लगता है कि सदियों से ये दिल वीरान है आरज़ूओं पर जमी " मुमताज़ " कैसी गर्द है     

कभी तो होगा उसपर भी असर, आहिस्ता-आहिस्ता

कभी तो होगा उसपर भी असर , आहिस्ता - आहिस्ता तुलू होगी अंधेरे से सहर.... आहिस्ता..... आहिस्ता हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हम को किधर जाना था , चल निकले किधर , आहिस्ता आहिस्ता लगी है ख़ाक उड़ने , अब ज़मीन-ए-दिल में सहरा है लगे हैं सूखने सारे शजर , आहिस्ता....आहिस्ता.... उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है बना जाता है शो ’ ला इक शरर आहिस्ता आहिस्ता चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता लहू दिल का पिला कर पालते हैं फ़न की कोंपल को ये पौधा बन ही जाएगा शजर आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठते हैं लेकिन रास्ता तय ही नहीं होता “ कि हरकत तेज़ तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता ” अगर है जुस्तजू तुझ को मोहब्बत के ख़ज़ाने की तो फिर “ मुमताज़ ” धड़कन में उतर आहिस्ता आहिस्ता

है एक सा सब का लहू, फिर क्या है ये तेरा मेरा

है एक सा सब का लहू , फिर क्या है ये तेरा मेरा हिन्दू तेरे , मुस्लिम तेरे , काशी तेरी , काबा तेरा बैठे हुए हैं आज तक , तू ने जहाँ छोड़ा हमें हम पर है ये इल्ज़ाम क्यूँ रास्ता नहीं देखा तेरा जीने का फ़न , मरने की ख़ू , सौ हसरतें टूटी हुईं क्या क्या हमें तू ने दिया , एहसान है क्या क्या तेरा फिर इम्तेहाँ का वक़्त है , साइल है तू दर पर मेरे उलफ़त की रख लूँ लाज फिर , ला तोड़ दूँ कासा तेरा ये रब्त भी अक्सर रहा तेरे मेरे जज़्बात में आँखें नहीं सूखीं मेरी , दामन नहीं भीगा तेरा जलती हुई बाद-ए-सबा , भीगी हुईं परछाइयाँ ऐ सुबह-ए-ग़म कुछ तो बता , क्यूँ रंग है काला तेरा तन्हा रहे “ मुमताज़ ” कब हम ज़िन्दगी की राह में अब तक मेरे हमराह है तेरी महक , साया तेरा  

गिरिया करे, तड़प के वफ़ा की दुहाई दे

गिरिया करे , तड़प के वफ़ा की दुहाई दे फ़रियाद फिर भी दिल की न उसको सुनाई दे अपना तो कुछ भी मुझ को न मेरा अताई दे दिल फूँकने को आग भी दे तो पराई दे अब के ठहर गई है मेरी ज़िन्दगी में रात इन ज़ुलमतों म में राह भी कैसे सुझाई दे यूँ बेख़ुदी में मिट गया एहसास-ए-दर्द भी मेरा जुनून ज़ख़्म भी मुझ को हिनाई दे मैं ने कुचल दिया है हर इक आरज़ू का फन अब मुझ को दिल की चीख़ में नग़्मा सुनाई दे वहशत सी अब तो होने लगी है हयात से मेरी घुटन को भी तो कभी लब कुशाई दे टकरा के लौट आती हैं हर बार अर्श से मेरी दुआओं को भी कभी तो रसाई दे चीख़ों से शेर ढालेगी “ मुमताज़ ” कब तलक अब तो सुख़न की क़ैद से ख़ुद को रिहाई दे  

तेरी याद आ रही है

अब साँस साँस में इक महशर उठा रही है तेरी बात बात मुझ को अब याद आ रही है वो पहली पहली नज़रें उल्फ़त का पहला मौसम बेताब सी तमन्ना , वो रहबरी का आलम मुझे देख कर तेरा वो कोई शेर गुनगुनाना कोई दास्तान कहना कोई मसअला सुनाना रंगों की चाशनी में भीगे पयाम सारे वो गीत , वो तराने , वो झूमते इशारे ख़्वाबों की बारिशों में वो भीगती सी बातें वो लाज़वाल जज़्बा , वो बेतकान रातें वो आशिक़ी का जादू इक़रार का वो नश्शा वो डूबती सी धड़कन इसरार का वो नश्शा जब रक़्स में थे लम्हे , आलम ख़ुमार में था इक बेक़रार नग़्मा हर इक क़रार में था उल्फ़त का आशिक़ी का हर इक रिवाज बदला मौसम की तरह जानाँ तेरा मिज़ाज बदला जज़्बों की वो दीवाली अरमान की वो ईदें रूठे वो ख़्वाब सारे टूटीं सभी उम्मीदें जादू वो आशिक़ी का गो अब भी जागता है नश्शा वो दर्द बन कर सीने में चुभ रहा है रोती है हर तमन्ना , ज़ख़्मी है हर नज़ारा बैठा है मुँह छुपाए हर झूमता इशारा हर दास्तान चुप है ख़ामोश हैं फ़साने अब खून रो रहे हैं वो गीत वो तराने मिज़गाँ की चिलमनों में मोती पिरो गया है जाने कहाँ वो तेरा अब प्यार खो