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है एक सा सब का लहू, फिर क्या है ये तेरा मेरा

है एक सा सब का लहू , फिर क्या है ये तेरा मेरा हिन्दू तेरे , मुस्लिम तेरे , काशी तेरी , काबा तेरा बैठे हुए हैं आज तक , तू ने जहाँ छोड़ा हमें हम पर है ये इल्ज़ाम क्यूँ रास्ता नहीं देखा तेरा जीने का फ़न , मरने की ख़ू , सौ हसरतें टूटी हुईं क्या क्या हमें तू ने दिया , एहसान है क्या क्या तेरा फिर इम्तेहाँ का वक़्त है , साइल है तू दर पर मेरे उलफ़त की रख लूँ लाज फिर , ला तोड़ दूँ कासा तेरा ये रब्त भी अक्सर रहा तेरे मेरे जज़्बात में आँखें नहीं सूखीं मेरी , दामन नहीं भीगा तेरा जलती हुई बाद-ए-सबा , भीगी हुईं परछाइयाँ ऐ सुबह-ए-ग़म कुछ तो बता , क्यूँ रंग है काला तेरा तन्हा रहे “ मुमताज़ ” कब हम ज़िन्दगी की राह में अब तक मेरे हमराह है तेरी महक , साया तेरा  

गिरिया करे, तड़प के वफ़ा की दुहाई दे

गिरिया करे , तड़प के वफ़ा की दुहाई दे फ़रियाद फिर भी दिल की न उसको सुनाई दे अपना तो कुछ भी मुझ को न मेरा अताई दे दिल फूँकने को आग भी दे तो पराई दे अब के ठहर गई है मेरी ज़िन्दगी में रात इन ज़ुलमतों म में राह भी कैसे सुझाई दे यूँ बेख़ुदी में मिट गया एहसास-ए-दर्द भी मेरा जुनून ज़ख़्म भी मुझ को हिनाई दे मैं ने कुचल दिया है हर इक आरज़ू का फन अब मुझ को दिल की चीख़ में नग़्मा सुनाई दे वहशत सी अब तो होने लगी है हयात से मेरी घुटन को भी तो कभी लब कुशाई दे टकरा के लौट आती हैं हर बार अर्श से मेरी दुआओं को भी कभी तो रसाई दे चीख़ों से शेर ढालेगी “ मुमताज़ ” कब तलक अब तो सुख़न की क़ैद से ख़ुद को रिहाई दे  

तेरी याद आ रही है

अब साँस साँस में इक महशर उठा रही है तेरी बात बात मुझ को अब याद आ रही है वो पहली पहली नज़रें उल्फ़त का पहला मौसम बेताब सी तमन्ना , वो रहबरी का आलम मुझे देख कर तेरा वो कोई शेर गुनगुनाना कोई दास्तान कहना कोई मसअला सुनाना रंगों की चाशनी में भीगे पयाम सारे वो गीत , वो तराने , वो झूमते इशारे ख़्वाबों की बारिशों में वो भीगती सी बातें वो लाज़वाल जज़्बा , वो बेतकान रातें वो आशिक़ी का जादू इक़रार का वो नश्शा वो डूबती सी धड़कन इसरार का वो नश्शा जब रक़्स में थे लम्हे , आलम ख़ुमार में था इक बेक़रार नग़्मा हर इक क़रार में था उल्फ़त का आशिक़ी का हर इक रिवाज बदला मौसम की तरह जानाँ तेरा मिज़ाज बदला जज़्बों की वो दीवाली अरमान की वो ईदें रूठे वो ख़्वाब सारे टूटीं सभी उम्मीदें जादू वो आशिक़ी का गो अब भी जागता है नश्शा वो दर्द बन कर सीने में चुभ रहा है रोती है हर तमन्ना , ज़ख़्मी है हर नज़ारा बैठा है मुँह छुपाए हर झूमता इशारा हर दास्तान चुप है ख़ामोश हैं फ़साने अब खून रो रहे हैं वो गीत वो तराने मिज़गाँ की चिलमनों में मोती पिरो गया है जाने कहाँ वो तेरा अब प्यार खो

मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा

मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा सर्द सा इक रंग फैला जा ब जा रह जाएगा कर तो लूँ तर्क-ए-मोहब्बत लेकिन उस के बाद भी कुछ अधूरी ख़्वाहिशों का सिलसिला रह जाएगा कारवाँ तो खो भी जाएगा ग़ुबार-ए-राह में दूर तक फैला हुआ इक रास्ता रह जाएगा टूट जाएँगी उम्मीदें , पस्त होंगे हौसले एक तन्हा आदमी बे दस्त-ओ-पा रह जाएगा मैं अगर अपनी ख़मोशी को अता कर दूँ ज़ुबाँ हैरतों के दायरों में तू घिरा रह जाएगा रुत भी बदलेगी , बहारें आ भी जाएँगी मगर इस ख़िज़ाँ का राज़ चेहरे पर लिखा रह जाएगा हाफ़िज़े से नक़्श यूँ ही मिटते जाएँगे अगर दूर तक आँखों में इक दश्त-ए-बला रह जाएगा अपना सब कुछ खो के पाया है तुझे “ मुमताज़ ” ने खो गया तू भी तो मेरे पास क्या रह जाएगा

चलन ज़माने के ऐ यार इख़्तियार न कर

चलन ज़माने के ऐ यार इख़्तियार न कर ख़ुशी के साथ मेरी वहशतें शुमार न कर तेरी हयात का गुज़रा वो एक लम्हा है वो अब न आएगा , अब उसका इंतज़ार न कर तिजारतों में दिलों की सुना नहीं करते दिलों की बात पे इतना भी ऐतबार न कर बहुत हैं क़ीमती गौहर इन्हें संभाल के रख ज़रा सी बात पे आँखों को अश्कबार न कर मिलेगी कोई न क़ीमत मचलते जज़्बों की तू अपनी रूह के ज़ख़्मों का कारोबार न कर सिवा शदीद निदामत के क्या मिलेगा तुझे सवाल कर के तअल्लुक़ को शर्मसार न कर है इब्तेदा ही अभी मुश्किलों की , हार न मान अभी ग़मों को तबीयत पे आशकार न कर अब इतना भी तो न महदूद कर वजूद अपना ज़ुबाँ के तीर से जज़्बात का शिकार न कर दिलों की ख़ाम ख़याली का क्या यक़ीं “ मुमताज़ ” तू दिल की बात पे इतना भी ऐतबार न कर   शुमार – गिनती , हयात – ज़िन्दगी , तिजारतों में – व्यापार में , अश्कबार – आंसुओं से भरी हुई , निदामत – शर्मिंदगी , आशकार – ज़ाहिर , हिसार-ए-ज़ात – व्यक्तित्व का घेरा , महदूद – सीमित

मेरी ख़ुशबू अगर सबा ले जाए

मेरी ख़ुशबू अगर सबा ले जाए संग यादों का क़ाफ़िला ले जाए मेरे हाथों से लिक्खा नाम अपना क्यूँ किताबों में वो दबा ले जाए और मेरे पास क्या है इस के सिवा वो जो चाहे , मेरी वफ़ा ले जाए बेरहम है जहान-ए-ज़र का निज़ाम सर से ग़ुर्बत के जो रिदा ले जाए अब तो यादें भी मेरे पास नहीं वो जो ले जाए भी तो क्या ले जाए क्या बुरा है कि अपनी आँखों में ख़्वाब मेरे भी वो बसा ले जाए मेरी वहशत सँभाल कर अक्सर ज़िंदगी से मुझे बचा ले जाए कह दो “ मुमताज़ ” क़ुर्ब का अपने लम्हा लम्हा वो अब उठा ले जाए

हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था

हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था कभी चेहरा तुम्हारा मेरा पहचाना भी होता था यही काफ़ी कहाँ था , तेरे आगे सर झुका देते हमें दुनिया के लोगों को जो समझाना भी होता था शिकम की आग में जलना तो फिर आसान था यारब मगर दो भूके बच्चों को जो बहलाना भी होता था फ़सीलें उन हवादिस ने दिलों में खेंच डाली थीं “ हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था ” गुज़र कर बारहा तूफ़ान-ए-यास-ओ-बदनसीबी से फ़रेब-ए-ज़िन्दगी दानिस्ता फिर खाना भी होता था धरम और ज़ात के हर ऐब से जो पाक था यारो रह-ए-दैर-ओ-हरम में एक मयख़ाना भी होता था तुम्हें अब याद हो “ मुमताज़ ” की चाहे न हो लेकिन कभी दुनिया के लब पर अपना अफ़साना भी होता था