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नज़्म – जीत

जो हौसला बलंद है नफ़स नफ़स कमंद है हमारी हर ख़ुशी हमारे हौसलों में बंद है वो बेकसी अतीत है यही हमारी जीत है हर एक देशवासी के लबों पे ये ही गीत है ये एकता मिसाल है हमारा ये कमाल है वतन के लब पे आज भी मगर वही सवाल है है कौन दूध का धुला अभी तलक नहीं खुला अभी तक इस पियाले में जहर का घूंट है घुला भरें सभी तिजोरियाँ हैं कैसी कैसी चोरियाँ सुला रहे हैं हम ज़मीर को सुना के लोरियाँ उठो , कि वक़्त आ गया बढ़ाओ हर कदम नया ज़रा तो तुम भी सोच लो कि फ़र्ज़ है तुम्हारा क्या ज़रा तो ख़ुद में झांक लो ज़मीर को भी आंक लो फ़रीज़े की जबीन पर कोई सितारा टाँक लो ये छोटी छोटी चोरियाँ जो जुर्म की हैं बोरियाँ हमारे मुल्क के लिए बनी हैं जो निंबोरियाँ इन्हें भी अब मिटाएँगे ख़ुदी को आज़माएँगे कि हाथ यूँ बढ़ाएँगे ज़मीर को जगाएँगे खिलाना है नया चमन बनाना है नया वतन बदल दें आओ मिल के हम समाज के सभी चलन न भेद ज़ात पाँत का न धर्म का न ज़ात का जवाब हम को देना है सदी सदी की बात का यही हमारी जीत है यही तो भारी जीत है बुराइयों की हार में

नज़्म – दूसरा गाँधी

समंदर से उठी , देहली तलक फिर छा गई आँधी जो आमादा हुआ अनशन पे अगली क़ौम का गाँधी हुकूमत से कहा ललकार कर , अब सामने आओ मिटा डालो करप्शन या तो कुर्सी से उतर जाओ जो सदियों सदियों से कुचले हुए लूटे हुए थे हम जो मज़हब ज़ात के टुकड़ों में बस टूटे हुए थे हम हमारे मुंतशिर थे दिल न जाने कितने ख़ानों में धरम में , ज़ात में , क़ौमों में , रक़्बों में , ज़बानों में हमारी हर नफ़स बेजान थी , जज़्बात मुर्दा थे हर इक हसरत हेरासाँ थी , सभी जज़्बात मुर्दा थे वो बहर-ए-बेकराँ हसरत का फिर अंगड़ाई ले उठ्ठा नया जज़्बा , नई ताक़त , नई बीनाई ले उठ्ठा वो बेकस , बेबस-ओ-मजबूर एहसासात जाग उठ्ठे मिटा डाला था जिन को वक़्त ने , जज़्बात जाग उठ्ठे पुकार इस देश की धरती की हम को इक जगह लाई हज़ारे ने ज़रा आवाज़ दी , दुनिया सिमट आई कमर कस कर उठा हर देशवासी अपनी ताक़त भर झुका सकता नहीं कोई हमें अब अपने क़दमों पर हमारे सब्र का अब इम्तेहाँ कोई नहीं लेगा हिसाब अब पाई पाई का सभी से बिल यक़ीं लेगा हमारे देश के दिल की सदा अन्ना हज़ारे है नई इस क़ौम का अब रहनुमा अन्ना हज़ारे है

करवट करवट जलता होगा

करवट करवट जलता होगा वो भी क्या सो पाया होगा मेरे बिना अब तन्हा होगा वो भी शायद रोया होगा रात गए जब तन्हा होगा याद तो मुझ को करता होगा उलझन में मेरे बारे में जाने क्या क्या सोचा होगा शाम को सूरज डूबेगा तो उस का दिल भी डूबा होगा उम्र तो कट जाएगी लेकिन लम्हा लम्हा प्यासा होगा अब भी मैं सोचा करती हूँ जाने अब वो कैसा होगा हम ख़ुद ही “ मुमताज़ ” मिटे हैं किस्मत से क्यूँ शिकवा होगा

नज़्म - न जाने कौन है

न जाने कौन है वो अजनबी वो हमनवा मेरा न जाने कब से इक एहसास बन कर आ गया है वो खयाल-ओ-ख़्वाब पर , जह्न-ओ-तबअ पर छा गया है वो कभी सरगोशियों में धड़कनों की लय सुनाता है कभी चुपके से इक उल्फ़त का नग़्मा गुनगुनाता है ख़ुमारी झाँकती रहती है बहकी बहकी साँसों से कभी साँसें महक उठती हैं उसकी महकी साँसों से कभी उसके लबों का लम्स छू लेता है गालों को चुना करती हैं आँखें उसकी नज़रों के उजालों को न जाने कौन है , किस की इबादत करती रहती हूँ किसी एहसास के पैकर से उल्फ़त करती रहती हूँ मेरे जज़्बे की धड़कन है , मेरी उल्फ़त का दिल है वो तसव्वर है , तख़य्युल है , सराब-ए-मुस्तक़िल है वो न जाने कौन है वो अजनबी वो हमनवा मेरा

मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा

मुझ में क्या तेरे तसव्वर के सिवा रह जाएगा सर्द सा इक रंग फैला जा ब जा रह जाएगा कर तो लूँ तर्क-ए-मोहब्बत लेकिन उस के बाद भी कुछ अधूरी ख़्वाहिशों का सिलसिला रह जाएगा कारवाँ तो खो भी जाएगा ग़ुबार-ए-राह में दूर तक फैला हुआ इक रास्ता रह जाएगा टूट जाएँगी उम्मीदें , पस्त होंगे हौसले एक तन्हा आदमी बे दस्त-ओ-पा रह जाएगा मैं अगर अपनी ख़मोशी को अता कर दूँ ज़ुबाँ हैरतों के दायरों में तू घिरा रह जाएगा अपना सब कुछ खो के पाया है तुझे “ मुमताज़ ” ने खो गया तू भी तो मेरे पास क्या रह जाएगा

नज़्म पार्ट 2 - यास

मैं तेरी मुन्तज़िर ता उम्र जानां रह भी सकती थी हर इक रंज ओ अलम हर इक मुसीबत सह भी सकती थी तेरे बस इक इशारे पर मुझे मरना गवारा था तेरा बस इक इशारा , जो मेरे दिल का सहारा था रिहाई हो चुकी , लेकिन अभी ज़ंजीर बाक़ी है शिकस्ता हो चुका सपना , मगर ताबीर बाक़ी है तसव्वुर की ज़मीं पर अब नई फ़स्लें उगाना है अभी है जुस्तजू अपनी , अभी तो ख़ुद को पाना है धड़कती ज़िन्दगी की लय अभी ख़ामोश करती हूँ अभी तस्वीर ए हस्ती में नए कुछ रंग भरती हूँ   ये बिखरी किरचें दिल की तो उठा लूं , फिर ज़रा दम लूं ज़रा ज़ख्मों को ख़ुश सूरत बना लूं , फिर ज़रा दम लूं ज़रा इन शबनमी यादों के क़तरों को सुखा डालूँ ज़िबह कर लूं ज़रा उम्मीद को , हसरत को दफ़ना लूं उम्मीदों के सरों से अब नई लडियां बनाउँगी मैं अपने ज़हन के खद्शात को अब आज़माऊँगी   मुझे अब जीतनी ही है , हर इक हारी हुई बाज़ी बहुत अब हो गईं ये मन्तकें , ये झूटी लफ्फाज़ी ज़िबह करना-सर काटना

नज़्म पार्ट 1 - उम्मीद

मैं तेरी मुन्तज़िर ता उम्र जानाँ रह भी सकती हूँ हर इक रंज ओ अलम , हर इक मुसीबत सह भी सकती हूँ है इस में ज़िन्दगी , मुझ को ये मरना भी गवारा है तुम्हारी इक नज़र जानां , मेरे दिल का सहारा है रिहा हो कर तुम्हारी क़ैद से आख़िर कहाँ जाऊं तुम्हारा साथ हो , तो आसमाँ धरती पे ले आऊं तसव्वुर की ज़मीं का गोशा गोशा तुम ने घेरा है तुम्हारे रास्ते की ख़ाक में मेरा बसेरा है बुझाऊं जितना , आतिश इश्क़ की उतना भड़कती है तुम्हारी जुस्तजू में ज़िंदगी जानां , धड़कती है मेरी राहों में ता हद्द ए नज़र उल्फ़त ही उल्फ़त है बताऊँ क्या , तुम्हारे हिज्र में भी कैसी लज़्ज़त है जुबां से शबनमी यादों के क़तरे चाट लेती हूँ ये घड़ियाँ हिज्र की , उम्मीद से मैं काट लेती हूँ मगर उम्मीद की लड़ियों के मोती बिखरे जाते हैं कि दिल में गूंजते खद्शात मुझ को आज़माते हैं मुक़द्दर से ये दिल अब के दफ़ा जो जंग हारा है तमन्ना रेज़ा रेज़ा है , मोहब्बत पारा पारा है मगर फिर सोचती हूँ , मात इन हालात की होगी सहर भी कोई तो आख़िर अँधेरी रात की होगी कभी कोई किरन सूरज का भी पैग़ाम लाएगी तजल्ली भी कभी त