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नज़्म - उम्मीद (امید)

मैं तेरी मुंतज़िर ताउम्र जानाँ रह भी सकती हूँ हर इक रंज-ओ-अलम हर इक मुसीबत सह भी सकती हूँ है इसमें ज़िंदगी , मुझको ये मरना भी गवारा है तुम्हारी इक नज़र जानाँ मेरे दिल का सहारा है میں تیری منتظر تاعمر جاناں رہ بھی سکتی ہوں ہر اک رنج و الم ہر اک مصیبت سہ بھی سکتی ہوں ہے اس میں زندگی، مجھ کو یہ مرنا بھی گوارہ ہے تمھاری اک نظر جاناں مرے دل کا سہارا ہے रिहा हो कर तुम्हारी क़ैद से आख़िर कहाँ जाऊँ तुम्हारा साथ हो तो आस्माँ धरती पे ले आऊँ तसव्वर की ज़मीं का गोशा गोशा तुमने घेरा है तुम्हारे रास्ते की ख़ाक में मेरा बसेरा है رہا ہو کر تمھاری قید سے آخر کہاں جاؤں تمہارا سااتھ ہو تو آسماں دھرتی پہ لے آؤں تصور کی زمیں کا گوشہ گوشہ تم نے گھیرا ہے تمہارے راستے کی خاک میں میرا بسیرا ہے बुझाऊँ जितना आतिश इश्क़ की उतना भड़कती है तुम्हारी जुस्तजू में ज़िंदगी जानाँ धड़कती है मेरी राहों में ताहद्द-ए-नज़र उल्फ़त ही उल्फ़त है बताऊँ क्या , तुम्हारे हिज्र में भी कितनी लज़्ज़त है ज़ुबाँ से रेशमी यादों के क़तरे चाट लेती हूँ ये घड़ियाँ हिज्र की उम्मीद से मैं काट लेती हूँ بجھاؤ

ग़ज़ल - कभी चेहरा ये मेरा जाना पहचाना भी होता था

कभी चेहरा ये मेरा जाना पहचाना भी होता था हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था کبھی چہرا یہ میرا جانا پہچانا بھی ہوتا تھا ہمارے بیچ پہلے ایک یارانہ بھی ہوتا تھا यही काफ़ी कहाँ था , तेरे आगे सर झुका देते हमें दुनिया के लोगों को तो समझाना भी होता था یہی کافی کہاں تھا، تیرے آگے سر جھکا دیتے ہمیں دنیا کے لوگوں کو تو سمجھانا بھی ہوتا تھا शिकम की आग में जलना तो फिर आसान था यारो मगर दो भूके बच्चों को जो बहलाना भी होता था شکم کی آگ میں جلنا تو پھر آسان تھا یارو مگر دو بھوکے بچوں کو جو بہلانا بھی ہوتا تھا गुज़र कर बारहा तूफ़ान-ए-यास-ओ-बदनसीबी से फ़रेब-ए-ज़िन्दगी दानिस्ता फिर खाना भी होता था گذر کر بارہا طوفانِ یاس و بدنصیبی سے فریبِ زندگی دانستہ پھر کھانا بھی ہوتا تھا धरम और ज़ात के हर दाग़ से जो पाक था यारो रह-ए-दैर-ओ-हरम में एक मैख़ाना भी होता था دھرم اور ذات کے ہر داغ سے جو پاک تھا یارو رہِ دیروحرم میں ایک میخانہ بھی ہوتا تھا किए थे बारहा सजदे जमाल-ए-रू-ए-जानाँ को इसी दिल में मोहब्बत का वो बुतख़ाना भी होता था کیۓ تھے بارہا سجدے جمالِ روۓجاناں

ग़ज़ल - इक तख़य्युल जो आस पास रहे

इक तख़य्युल जो आस पास रहे रतजगों में वही मिठास रहे اک تخیل جو آس پاس رہے رتجگوں میں وہی مٹھاس رہے है इरादा अना का और ही कुछ आरज़ू मस्लेहत शनास रहे ہے ارادہ انا کا اور ہی کچھ آرزو مصلحت شناس رہے खुल न जाए ये वहशतों का भरम रात की तीरगी उदास रहे کھل نہ جاۓ یہ وحشتوں کا بھرم رات کی تیرگی اداس رہے ख़्वाहिशों की हसीन राहों में ज़िन्दगी महव-ए-इल्तेमास रहे خواہشوں کی حسین راہوں میں زندگی محوِ التماس رہے उम्र भर साथ साथ चलते रहे ज़ीस्त से फिर भी नाशनास रहे عمر بھر ساتھ ساتھ چلتے رہے زیست سے پھر بھی ناشناس رہے जुस्तजू में कमी न हो “ मुमताज़ ” मुझमें बाक़ी कोई तो प्यास रहे جستجو میں کمی نہ ہو ممتازؔ مجھ میں باقی کویء تو پیاس رہے

यक़ीनन होगा उस पर भी असर आहिस्ता आहिस्ता- غزل ग़ज़ल

यक़ीनन होगा उस पर भी असर आहिस्ता आहिस्ता तुलू होगी अँधेरे से सहर आहिस्ता आहिस्ता یقیناً ہوگا اس پر بھی اثر آہستہ آہستہ طلوع ہوگی اندھیرے سے سحر آہستہ آہستہ             हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हमको किधर जाना था , चल निकले किधर आहिस्ता आहिस्ता ہماری بیخودی جانے کہاں لے جاۓ اب ہمکو کدھر جانا تھا، چل نکلے کدھر آہستہ آہستہ चमन दिल का उजड़ कर अब तो सहरा बनता जाता है लगे हैं सूखने सारे शजर आहिस्ता आहिस्ता چمن دل کا اجڑ کر اب تو صحرا ہوتا جاتا ہے لگے ہیں سوکھنے سارے شجر آہستہ آہستہ उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता ابھرتا ہے نیازِ شوق اب تو بینیازی سے دعا جانے لگی ہے عرش پر آہستہ آہستہ मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है बना जाता है शो ’ ला ये शरर आहिस्ता आहिस्ता محبت اب مسلسل درد میں تبدیل ہوتی ہے بنا جاتا ہے شعلہ یہ شرر آہستہ آہستہ चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता چلا لے تیر جتنے تیرے ترکش میں ہیں اۓ قاتل مرے سینے پہ لیک

ग़ज़ल - करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें

वो करते रहे ज़ुल्म ढाने की बातें वो तीर-ए-नज़र वो निशाने की बातें करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें बहुत हो गईं दिल दुखाने की बातें ज़माना तो जीने भी देगा न हमको कहाँ तक सुनोगे ज़माने की बातें हटाओ भी , क्या ले के बैठे हो जानम ये खोने के शिकवे , ये पाने की बातें ये ताने , ये तिशने , ये शिकवे , ये नाले किया करते हो दिल जलाने की बातें यहाँ कौन देता है जाँ किसकी ख़ातिर किताबी हैं ये जाँ लुटाने की बातें चलो छोड़ो “ मुमताज़ ” अब मान जाओ भुला दो ये सारी भुलाने की बातें 

ग़ज़ल - अगर नालाँ हो हमसे

अगर नालाँ हो हमसे , जा रहो ग़ैरों के साए में अजी रक्खा ही क्या है रोज़ की इस हाए हाए में हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए प अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में बिल आख़िर बेहिसी ने डाल दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें न कोई फ़र्क़ ही बाक़ी रहा अपने पराए में नहीं बदला अगर तो रंग इस दिल का नहीं बदला मुसाफ़िर आते जाते ही रहे दिल की सराए में मयस्सर है हमें सब कुछ प दिल ही बुझ गया है अब कहाँ वो लुत्फ़ बाक़ी जो था उस अदरक की चाए में जहाँ से छुप छुपा कर आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ दो आलम की पनाहें हैं तेरी पलकों के साए में निबाहें किस तरह “ मुमताज़ ” हम इस शहर-ए-हसरत से हज़ारों ख़्वाहिशें बसती हैं उल्फ़त के बसाए में 

फ़ैज़ के नाम

दिल में सोचा है जुनूँ की दास्ताँ लिक्खूँ मैं आज फ़ैज़ की ख़िदमत में लिक्खूँ मैं अक़ीदत का ख़िराज फ़ैज़ वो , जिसने उठाया शायरी में इन्क़िलाब फ़ैज़ वो , जो था हर इक हंगामा-ए-ग़म का जवाब जिसके दिल में दर्द था इंसानियत के वास्ते क़ैद की गलियों से हो कर गुज़रे जिसके रास्ते उसका दिल इंसानियत के ज़ख़्म से था चाक चाक उसका शेवा आदमीयत , उसका मज़हब इश्तेराक तेशा-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम से जिसका दिल था लख़्त लख़्त इम्तेहाँ जिसके लिए थे गर्दिश-ए-दौराँ ने सख़्त काँप उठा था जिसके डर से हुक्म-ए-शाही का दरख़्त हिल उठा था ताज-ए-शाही और लरज़ उट्ठा था तख़्त ज़हर थी आवाज़ उसकी हुक्मरानों के लिए और अमृत बन के बरसी हमज़ुबानों के लिए जिसका हर इक लफ़्ज़ हसरत का सिपारा बन गया जो अदब के आस्माँ का इक सितारा बन गया ज़ुल्म क्या ज़ंजीर पहनाता किसी आवाज़ को क़ैद कोई क्या करेगा सोच की परवाज़ को उसकी हस्ती को मिटा पाया न कोई हुक्मराँ ता अबद क़ायम रहेगी फ़ैज़ की ये दास्ताँ अक़ीदत का ख़िराज – श्रद्धांजलि , इन्क़िलाब – क्रांति , चाक चाक – टुकड़े टुकड़े , शेवा – तरीका , इश्तेराक – सर्व धर्म सम भाव , तेशा – क