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ग़ज़ल - इक तख़य्युल जो आस पास रहे

इक तख़य्युल जो आस पास रहे रतजगों में वही मिठास रहे اک تخیل جو آس پاس رہے رتجگوں میں وہی مٹھاس رہے है इरादा अना का और ही कुछ आरज़ू मस्लेहत शनास रहे ہے ارادہ انا کا اور ہی کچھ آرزو مصلحت شناس رہے खुल न जाए ये वहशतों का भरम रात की तीरगी उदास रहे کھل نہ جاۓ یہ وحشتوں کا بھرم رات کی تیرگی اداس رہے ख़्वाहिशों की हसीन राहों में ज़िन्दगी महव-ए-इल्तेमास रहे خواہشوں کی حسین راہوں میں زندگی محوِ التماس رہے उम्र भर साथ साथ चलते रहे ज़ीस्त से फिर भी नाशनास रहे عمر بھر ساتھ ساتھ چلتے رہے زیست سے پھر بھی ناشناس رہے जुस्तजू में कमी न हो “ मुमताज़ ” मुझमें बाक़ी कोई तो प्यास रहे جستجو میں کمی نہ ہو ممتازؔ مجھ میں باقی کویء تو پیاس رہے

यक़ीनन होगा उस पर भी असर आहिस्ता आहिस्ता- غزل ग़ज़ल

यक़ीनन होगा उस पर भी असर आहिस्ता आहिस्ता तुलू होगी अँधेरे से सहर आहिस्ता आहिस्ता یقیناً ہوگا اس پر بھی اثر آہستہ آہستہ طلوع ہوگی اندھیرے سے سحر آہستہ آہستہ             हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हमको किधर जाना था , चल निकले किधर आहिस्ता आहिस्ता ہماری بیخودی جانے کہاں لے جاۓ اب ہمکو کدھر جانا تھا، چل نکلے کدھر آہستہ آہستہ चमन दिल का उजड़ कर अब तो सहरा बनता जाता है लगे हैं सूखने सारे शजर आहिस्ता आहिस्ता چمن دل کا اجڑ کر اب تو صحرا ہوتا جاتا ہے لگے ہیں سوکھنے سارے شجر آہستہ آہستہ उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता ابھرتا ہے نیازِ شوق اب تو بینیازی سے دعا جانے لگی ہے عرش پر آہستہ آہستہ मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है बना जाता है शो ’ ला ये शरर आहिस्ता आहिस्ता محبت اب مسلسل درد میں تبدیل ہوتی ہے بنا جاتا ہے شعلہ یہ شرر آہستہ آہستہ चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता چلا لے تیر جتنے تیرے ترکش میں ہیں اۓ قاتل مرے سینے پہ لیک

ग़ज़ल - करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें

वो करते रहे ज़ुल्म ढाने की बातें वो तीर-ए-नज़र वो निशाने की बातें करो कुछ तो हँसने हँसाने की बातें बहुत हो गईं दिल दुखाने की बातें ज़माना तो जीने भी देगा न हमको कहाँ तक सुनोगे ज़माने की बातें हटाओ भी , क्या ले के बैठे हो जानम ये खोने के शिकवे , ये पाने की बातें ये ताने , ये तिशने , ये शिकवे , ये नाले किया करते हो दिल जलाने की बातें यहाँ कौन देता है जाँ किसकी ख़ातिर किताबी हैं ये जाँ लुटाने की बातें चलो छोड़ो “ मुमताज़ ” अब मान जाओ भुला दो ये सारी भुलाने की बातें 

ग़ज़ल - अगर नालाँ हो हमसे

अगर नालाँ हो हमसे , जा रहो ग़ैरों के साए में अजी रक्खा ही क्या है रोज़ की इस हाए हाए में हज़ारों बार दाम-ए-आरज़ू से खेंच कर लाए प अक्सर आ ही जाता है ये दिल तेरे सिखाए में बिल आख़िर बेहिसी ने डाल दीं जज़्बों पे ज़ंजीरें न कोई फ़र्क़ ही बाक़ी रहा अपने पराए में नहीं बदला अगर तो रंग इस दिल का नहीं बदला मुसाफ़िर आते जाते ही रहे दिल की सराए में मयस्सर है हमें सब कुछ प दिल ही बुझ गया है अब कहाँ वो लुत्फ़ बाक़ी जो था उस अदरक की चाए में जहाँ से छुप छुपा कर आ बसे हैं हम यहाँ जानाँ दो आलम की पनाहें हैं तेरी पलकों के साए में निबाहें किस तरह “ मुमताज़ ” हम इस शहर-ए-हसरत से हज़ारों ख़्वाहिशें बसती हैं उल्फ़त के बसाए में 

फ़ैज़ के नाम

दिल में सोचा है जुनूँ की दास्ताँ लिक्खूँ मैं आज फ़ैज़ की ख़िदमत में लिक्खूँ मैं अक़ीदत का ख़िराज फ़ैज़ वो , जिसने उठाया शायरी में इन्क़िलाब फ़ैज़ वो , जो था हर इक हंगामा-ए-ग़म का जवाब जिसके दिल में दर्द था इंसानियत के वास्ते क़ैद की गलियों से हो कर गुज़रे जिसके रास्ते उसका दिल इंसानियत के ज़ख़्म से था चाक चाक उसका शेवा आदमीयत , उसका मज़हब इश्तेराक तेशा-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम से जिसका दिल था लख़्त लख़्त इम्तेहाँ जिसके लिए थे गर्दिश-ए-दौराँ ने सख़्त काँप उठा था जिसके डर से हुक्म-ए-शाही का दरख़्त हिल उठा था ताज-ए-शाही और लरज़ उट्ठा था तख़्त ज़हर थी आवाज़ उसकी हुक्मरानों के लिए और अमृत बन के बरसी हमज़ुबानों के लिए जिसका हर इक लफ़्ज़ हसरत का सिपारा बन गया जो अदब के आस्माँ का इक सितारा बन गया ज़ुल्म क्या ज़ंजीर पहनाता किसी आवाज़ को क़ैद कोई क्या करेगा सोच की परवाज़ को उसकी हस्ती को मिटा पाया न कोई हुक्मराँ ता अबद क़ायम रहेगी फ़ैज़ की ये दास्ताँ अक़ीदत का ख़िराज – श्रद्धांजलि , इन्क़िलाब – क्रांति , चाक चाक – टुकड़े टुकड़े , शेवा – तरीका , इश्तेराक – सर्व धर्म सम भाव , तेशा – क

नया आग़ाज़

रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में मैं ने रातों के अँधेरों को वहीं छोड़ दिया रास आया न मुझे जब ये सराबों का सफ़र मैं ने तक़दीर के हर पेच का रुख़ मोड़ दिया अब जलन है न कहीं शोर न तन्हाई है दूर तक एक नज़ारा है घनी छाँओं का हद्द-ए-बीनाई तलक सामने हरियाली है हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इक पाँओं का जाग उठीं हसरतें , अरमानों ने अंगड़ाई ली मुद्दतों बाद जो बेजानों ने अंगड़ाई ली छोड़ कर माज़ी-ए-ज़र्रीं की सुनहरी यादें एक अंजान मुसाफ़त पे निकल आई हूँ सराबों का – मरीचिकाओं का , हद्द-ए-बीनाई – दृष्टि की सीमा , बोसा – चुंबन , माज़ी-ए-ज़र्रीं – सुनहरा अतीत , मुसाफ़त – सफ़र 

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर शिरियानों से ले आई लहू तक निचोड़ कर क़िस्मत के ये शिगाफ़ भरे जाएँ किस तरह देखा है उसके दर पे जबीं को भी फोड़ कर तेरे करम की आस में कब से हैं मुन्तज़िर आ सामने कि चूम लें कदमों को दौड़ कर रक्खा है बार बार भरम इल्तेफ़ात का बिखरी हुई वजूद की किरचों को जोड़ कर जाने ये किसकी मात थी , किसको मिली सज़ा सायों से इंतेक़ाम लिया धूप ओढ़ कर इस रहबरी में क्या कहें कैसे थे मज़्मरात हम साथ साथ चलते रहे मुंह को मोड़ कर इस तल्ख़ी-ए-हयात की शिद्दत न पूछिए “ मुमताज़ ” रख दिया है कलेजा मरोड़ कर शिरियानों से - नसों से ,  शिगाफ़ – दरार , जबीं – माथा , मुन्तज़िर – प्रतीक्षारत , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , मज़्मरात – रहस्य