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नया आग़ाज़

रतजगे चुभने लगे जब मेरी इन आँखों में मैं ने रातों के अँधेरों को वहीं छोड़ दिया रास आया न मुझे जब ये सराबों का सफ़र मैं ने तक़दीर के हर पेच का रुख़ मोड़ दिया अब जलन है न कहीं शोर न तन्हाई है दूर तक एक नज़ारा है घनी छाँओं का हद्द-ए-बीनाई तलक सामने हरियाली है हिम्मतें लेती हैं बोसा मेरे इक पाँओं का जाग उठीं हसरतें , अरमानों ने अंगड़ाई ली मुद्दतों बाद जो बेजानों ने अंगड़ाई ली छोड़ कर माज़ी-ए-ज़र्रीं की सुनहरी यादें एक अंजान मुसाफ़त पे निकल आई हूँ सराबों का – मरीचिकाओं का , हद्द-ए-बीनाई – दृष्टि की सीमा , बोसा – चुंबन , माज़ी-ए-ज़र्रीं – सुनहरा अतीत , मुसाफ़त – सफ़र 

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर

उट्ठी जो आह दिल पे जमी बर्फ़ तोड़ कर शिरियानों से ले आई लहू तक निचोड़ कर क़िस्मत के ये शिगाफ़ भरे जाएँ किस तरह देखा है उसके दर पे जबीं को भी फोड़ कर तेरे करम की आस में कब से हैं मुन्तज़िर आ सामने कि चूम लें कदमों को दौड़ कर रक्खा है बार बार भरम इल्तेफ़ात का बिखरी हुई वजूद की किरचों को जोड़ कर जाने ये किसकी मात थी , किसको मिली सज़ा सायों से इंतेक़ाम लिया धूप ओढ़ कर इस रहबरी में क्या कहें कैसे थे मज़्मरात हम साथ साथ चलते रहे मुंह को मोड़ कर इस तल्ख़ी-ए-हयात की शिद्दत न पूछिए “ मुमताज़ ” रख दिया है कलेजा मरोड़ कर शिरियानों से - नसों से ,  शिगाफ़ – दरार , जबीं – माथा , मुन्तज़िर – प्रतीक्षारत , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , मज़्मरात – रहस्य 

आँख पर पहरा, ज़ुबानों पे लगा ताला है

आँख पर पहरा , ज़ुबानों पे लगा ताला है बाग़बाँ ने ये चमन ख़ुद ही जला डाला है दिल ने दामन में अँधेरों को सदा पाला है रात तो रात , सवेरा भी अभी काला है रंग तक़दीर का अपनी जो ज़रा काला है रौशनी के लिए हमने भी ये दिल बाला है मिन्नतें की हैं , दिया है ज़रा बहलावा भी कैसी हिकमत से तमन्ना को अभी टाला है दर्द रह रह के उठा करता है दिल में अब भी टीसता रहता है , दिल पर जो पड़ा छाला है कितने अरमानों से हमने जो सजाया था कभी आरज़ू का वो नगर आज तह-ओ-बाला है हमने “ मुमताज़ ” नई राह पे चलने के लिए इक नई शक्ल में अब रूह को फिर ढाला है तह-ओ-बाला – ऊपर नीचे 

धुँधला धुँधला सा हर नज़ारा है

धुँधला धुँधला सा हर नज़ारा है जाने क़िस्मत का क्या इशारा है जल गई है तमामतर हस्ती दिल है सीने में या शरारा है उससे भागूँ भी , उसको चाहूँ भी दुश्मन-ए-जाँ है फिर भी प्यारा है ग़म में , तन्हाइयों में , वहशत में हम ने अक्सर उसे पुकारा है एक मैं , एक तसव्वर तेरा अब तो दिल का यही सहारा है जाने अंजाम आगे क्या होगा दिल अभी से जो पारा पारा है हमने “ मुमताज़ ” उनके जलवों से अपनी तक़दीर को सँवारा है 

जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी, नहीं जाती

जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी , नहीं जाती किसी सूरत हमारी दिल की सुल्तानी नहीं जाती उसे गुज़रे हुए यूँ तो , ज़माना हो चुका है अब मगर वो बेवफ़ा है , बात ये मानी नहीं जाती न जाने कौन सी मंजिल पे आ पहुंचा सफ़र अपना जहाँ ख़ुद अपनी भी आवाज़ पहचानी नहीं जाती तअस्सुब से कोई तामीर मुमकिन ही नहीं साहब मोहब्बत की ये मिट्टी बैर से सानी नहीं जाती बिगड़ कर रह गया दिल मस्लेहत की ऐश-ओ-इशरत में जहान-ए-रंज-ओ-ग़म की ख़ाक अब छानी नहीं जाती चलन तो आम है फ़ितनागरी का इस ज़माने में मगर अब तक हमारे दिल की हैरानी नहीं जाती तिजारत का ज़माना है कि बिक जाता है ईमाँ भी बताओ , किस के घर रिश्वत की बिरयानी नहीं जाती छुपा लो तुम ही ख़ुद को सैकड़ों पर्दों में ख़ातूनो ज़माने की निगाहों से तो उरियानी नहीं जाती गुज़र जाने दें तूफाँ को , ज़रा झुक कर , तो बेहतर है ये जिद बेकार की "मुमताज़" अब ठानी नहीं जाती जज़्बात-भावनाएं , मौजों सी-लहरों सी , तुगियानी-हलचल , तअस्सुब-तरफदारी , अना-अहम् , तिजारत – व्यापार , ख़ातूनो – औरतों ,  उरियानी – नंगापन 

वो सितमगर आज हम पर वार ऐसा कर गया

वो सितमगर आज हम पर वार ऐसा कर गया ये सिला था हक़परस्ती का कि अपना सर गया रूह तो पहले ही उसकी मर चुकी थी दोस्तो एक दिन ये भी हुआ फिर , वो जनाज़ा मर गया वो लगावट , वो मोहब्बत , वो मनाना , रूठना ऐ सितमगर तेरे हर अंदाज़ से जी भर गया ताक़त-ओ-जुरअत सरापा , नाज़-ए-शहज़ोरी था जो जाने क्यूँ दिल के धड़कने की सदा से डर गया एक लग़्ज़िश ने ज़ुबाँ की जाने क्या क्या कर दिया तीर जो छूटा कमाँ से काम अपना कर गया सर झुकाए आज क्यूँ बैठा है तू ऐ तुंद ख़ू कजकुलाही क्या हुई तेरी , कहाँ तेवर गया एक उस लम्हे को दे दी हम ने हर हसरत कि फिर ज़िन्दगी से सारी मस्ती , हाथ से साग़र गया ऐ तमन्ना , तेरे इस एहसान का बस शुक्रिया हर अधूरे ख़्वाब से “ मुमताज़ ” अब जी भर गया हक़परस्ती - सच्चाई की पूजा , जुरअत – हिम्मत ,  सरापा – सर से पाँव तक , नाज़-ए-शहज़ोरी – तानाशाही का गौरव , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , तुंद ख़ू – बद मिज़ाज , कजकुलाही – स्टाइल , साग़र – प्याला (शराब का)

गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में

गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में यही इक ख़ू ग़लत है हम मोहब्बत के सफ़ीरों में हुकूमत है हमारी दिल की दुनिया के अमीरों में है दिल सुल्तान लेकिन है नशिस्त अपनी फ़क़ीरों में लहू बन कर रवाँ वो जिस्म की रग रग में था शायद ख़ुदा ने लिख दिया था उसको हाथों की लकीरों में कोई दीवाना शायद रो पड़ा है फूट कर यारो क़फ़स की तीलियाँ जलती हैं , हलचल है असीरों में तमाशा देखता है जो खड़ा गुलशन के जलने का वो फ़ितनासाज़ भी रहता है अपने दस्तगीरों में अना कोई , न है पिनदार , ग़ैरत है , न ख़ुद्दारी ज़ईफ़ी ये कहाँ से आ गई अपने ज़मीरों में इरादा क्या है , जाने कश्तियाँ वो क्यूँ बनाता है वो शहज़ादा जो रहता है मेरे दिल के जज़ीरों में सदा है , चीख़ है , इक दर्द है , “ मुमताज़ ” मातम है लहू की धार है सुर की जगह अबके नफ़ीरों में ख़ू – आदत , सफ़ीरों में – प्रतिनिधियों में , नशिस्त – बैठक , क़फ़स – पिंजरा , असीरों – क़ैदियों , दस्तगीरों – दिलासा देने वालों , पिनदार – इज़्ज़त , ज़ईफ़ी – कमज़ोरी , नफ़ीरों - बांसुरियों