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जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी, नहीं जाती

जो है जज़्बात में मौजों सी तुग़यानी , नहीं जाती किसी सूरत हमारी दिल की सुल्तानी नहीं जाती उसे गुज़रे हुए यूँ तो , ज़माना हो चुका है अब मगर वो बेवफ़ा है , बात ये मानी नहीं जाती न जाने कौन सी मंजिल पे आ पहुंचा सफ़र अपना जहाँ ख़ुद अपनी भी आवाज़ पहचानी नहीं जाती तअस्सुब से कोई तामीर मुमकिन ही नहीं साहब मोहब्बत की ये मिट्टी बैर से सानी नहीं जाती बिगड़ कर रह गया दिल मस्लेहत की ऐश-ओ-इशरत में जहान-ए-रंज-ओ-ग़म की ख़ाक अब छानी नहीं जाती चलन तो आम है फ़ितनागरी का इस ज़माने में मगर अब तक हमारे दिल की हैरानी नहीं जाती तिजारत का ज़माना है कि बिक जाता है ईमाँ भी बताओ , किस के घर रिश्वत की बिरयानी नहीं जाती छुपा लो तुम ही ख़ुद को सैकड़ों पर्दों में ख़ातूनो ज़माने की निगाहों से तो उरियानी नहीं जाती गुज़र जाने दें तूफाँ को , ज़रा झुक कर , तो बेहतर है ये जिद बेकार की "मुमताज़" अब ठानी नहीं जाती जज़्बात-भावनाएं , मौजों सी-लहरों सी , तुगियानी-हलचल , तअस्सुब-तरफदारी , अना-अहम् , तिजारत – व्यापार , ख़ातूनो – औरतों ,  उरियानी – नंगापन 

वो सितमगर आज हम पर वार ऐसा कर गया

वो सितमगर आज हम पर वार ऐसा कर गया ये सिला था हक़परस्ती का कि अपना सर गया रूह तो पहले ही उसकी मर चुकी थी दोस्तो एक दिन ये भी हुआ फिर , वो जनाज़ा मर गया वो लगावट , वो मोहब्बत , वो मनाना , रूठना ऐ सितमगर तेरे हर अंदाज़ से जी भर गया ताक़त-ओ-जुरअत सरापा , नाज़-ए-शहज़ोरी था जो जाने क्यूँ दिल के धड़कने की सदा से डर गया एक लग़्ज़िश ने ज़ुबाँ की जाने क्या क्या कर दिया तीर जो छूटा कमाँ से काम अपना कर गया सर झुकाए आज क्यूँ बैठा है तू ऐ तुंद ख़ू कजकुलाही क्या हुई तेरी , कहाँ तेवर गया एक उस लम्हे को दे दी हम ने हर हसरत कि फिर ज़िन्दगी से सारी मस्ती , हाथ से साग़र गया ऐ तमन्ना , तेरे इस एहसान का बस शुक्रिया हर अधूरे ख़्वाब से “ मुमताज़ ” अब जी भर गया हक़परस्ती - सच्चाई की पूजा , जुरअत – हिम्मत ,  सरापा – सर से पाँव तक , नाज़-ए-शहज़ोरी – तानाशाही का गौरव , लग़्ज़िश – लड़खड़ाना , तुंद ख़ू – बद मिज़ाज , कजकुलाही – स्टाइल , साग़र – प्याला (शराब का)

गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में

गुज़ारा हो नहीं सकता हमारा कमज़मीरों में यही इक ख़ू ग़लत है हम मोहब्बत के सफ़ीरों में हुकूमत है हमारी दिल की दुनिया के अमीरों में है दिल सुल्तान लेकिन है नशिस्त अपनी फ़क़ीरों में लहू बन कर रवाँ वो जिस्म की रग रग में था शायद ख़ुदा ने लिख दिया था उसको हाथों की लकीरों में कोई दीवाना शायद रो पड़ा है फूट कर यारो क़फ़स की तीलियाँ जलती हैं , हलचल है असीरों में तमाशा देखता है जो खड़ा गुलशन के जलने का वो फ़ितनासाज़ भी रहता है अपने दस्तगीरों में अना कोई , न है पिनदार , ग़ैरत है , न ख़ुद्दारी ज़ईफ़ी ये कहाँ से आ गई अपने ज़मीरों में इरादा क्या है , जाने कश्तियाँ वो क्यूँ बनाता है वो शहज़ादा जो रहता है मेरे दिल के जज़ीरों में सदा है , चीख़ है , इक दर्द है , “ मुमताज़ ” मातम है लहू की धार है सुर की जगह अबके नफ़ीरों में ख़ू – आदत , सफ़ीरों में – प्रतिनिधियों में , नशिस्त – बैठक , क़फ़स – पिंजरा , असीरों – क़ैदियों , दस्तगीरों – दिलासा देने वालों , पिनदार – इज़्ज़त , ज़ईफ़ी – कमज़ोरी , नफ़ीरों - बांसुरियों 

नारसा ठहरीं दुआएँ इस दिल-ए-नाकाम की

नारसा ठहरीं दुआएँ इस दिल-ए-नाकाम की डूबती ही जा रही है नब्ज़ तश्नाकाम की ये तड़प , ये दर्द , ये नाकामियाँ , ये उलझनें कोई भी सूरत नज़र आती नहीं आराम की   सारे आलम की तबाही एक इस उल्फ़त में है कोई तो आख़िर दवा हो इस ख़याल-ए-ख़ाम की छीन ली बीनाई मेरी एक इस ज़िद ने कि फिर देखा कुछ हमने न कुछ परवाह की अंजाम की कोशिशें नाकाम सारी , हर तमन्ना तश्नालब हम पे पैहम है इनायत गर्दिश-ए-अय्याम की हैफ़ , क़िस्मत के इरादे किस क़दर बरबादकुन इसने हर तदबीर मेरी आज तक नाकाम की एक अदना सी तमन्ना , इक मोहब्बत का सफ़र ज़िन्दगी की ये मुसाफ़त थी फ़क़त दो गाम की थम गई “ मुमताज़ ” वो धड़कन तो हस्ती चुक गई एक धड़कन वो जो थी जानम तुम्हारे नाम की तश्नाकाम – प्यासा , ख़याल-ए-ख़ाम – झूठा ख़याल , पैहम – लगातार , अय्याम – दिन , हैफ़ – आश्चर्य है  

हमसफ़र खो गए

हमसफ़र खो गए ज़िन्दगी की सुहानी सी वो रहगुज़र साथ साथ आ रहे थे मेरे वो मगर आज जाने हुआ क्या , मुझे छोड़ कर हाथ मुझ से छुड़ा कर वो गुम हो गए मैं भटकती रही जुस्तजू में यहाँ और रोती रहीं मेरी तन्हाइयाँ पर चट्टानों से टकरा के लौट आई जब टूटते दिल के टुकड़ों की ज़ख़्मी सदा ज़िन्दगी की सुहानी सी वो रहगुज़र एक तीराशबी का सफ़र हो गई रौशनी के सभी शहर गुम हो गए और मैं एक मुर्दा खंडर हो गई ऐ मेरे हमसफ़र मेरी खोई हुई राह के राहबर देख ले , मैं अकेली हूँ इस मोड़ पर और मेरे लिए आज हर इक सफ़र इन अँधेरों का लंबा सफ़र हो गया  

गर तसव्वर तेरा नहीं होता

गर तसव्वर तेरा नहीं होता दिल ये ग़ार-ए-हिरा नहीं होता एक दिल , एक तसव्वर तेरा बस कोई तीसरा नहीं होता पास-ए-माज़ी ज़रा जो रख लेते वो नज़र से गिरा नहीं होता होता वो मस्लेहत शनास अगर हादसों से घिरा नहीं होता ये तो हालात की नवाज़िश है कोई क़स्दन बुरा नहीं होता दिल को आ जाती थोड़ी अक़्ल अगर आरज़ू से भरा नहीं होता गुलशन-ए-दिल उजड़ के ऐ “ मुमताज़ ” फिर कभी भी हरा नहीं होता 

ये क्या कि अब तो दर्द भी दिल में नहीं रहा

ये क्या कि अब तो दर्द भी दिल में नहीं रहा ये कौन सा मक़ाम मोहब्बत में आ गया बेहिस हुई उम्मीद , तमन्नाएँ मर चुकीं इक ज़ख़्म-ए-ज़िन्दगी था सो वो भी नहीं रहा यूँ तो तमाम हो ही चुकीं बाग़ी हसरतें फिर भी कहीं है रूह में इक शोर सा बपा लगता है इख़्तेताम पे आ पहुंचा है सफ़र बोझल है जिस्म , कुंद नज़र , दिल थका थका माज़ी की धूल छाई है दिल के चहार सू दिन तो चढ़ आया , आज ये कोहरा नहीं छँटा “ मुमताज़ ” इस ख़ुलूस ने क्या क्या किया है ख़्वार इस लाइलाज रोग की क्या कीजिये दवा