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एक छोटी सी पैरोडी

नेट पर हम तुम्हें क्या बताएँ किस क़दर चोट खाए हुए हैं फ़ेसबुक से मिटाए गए हैं व्हाट्स अप के सताए हुए हैं आज तक हम कभी न नहाए मैले कपड़े पहन कर हम आए आज ही हम ने बदले हैं कपड़े आज ही हम नहाए हुए हैं 

साँस ख़ामोश है, जाँकनी रह गई

साँस ख़ामोश है , जाँकनी रह गई एक तन्हा शमअ बस जली रह गई कारवाँ तो ग़ुबारों में गुम हो गया इक निगह रास्ते पर जमी रह गई ले गया जाते जाते वो हर इक निशाँ बस मेरी आँख में इक नमी रह गई ऐसी बढ़ती गईं ग़म की तारीकियाँ मुँह छुपाती हुई हर ख़ुशी रह गई उस ने जाते हुए मुड़ के देखा नहीं एक ख़्वाहिश सी दिल में जगी रह गई वक़्त के धारों में हर निशाँ धुल गया एक तस्वीर दिल पर बनी रह गई मिट गई वक़्त के साथ हर दास्ताँ याद धुंधली सी है जो बची रह गई उसने “ मुमताज़ ” हमको जो बख़्शी थी वो आरज़ू की अधूरी लड़ी रह गई जाँकनी – आख़िरी वक़्त , तारीकियाँ – अँधेरे

हौसला जिस दिन से तेरा बेतकाँ हो जाएगा

हौसला जिस दिन से तेरा बेतकाँ हो जाएगा आस्माँ उस रोज़ तेरा पासबाँ हो जाएगा अपनी हस्ती को मिटा डाला था जिसके वास्ते क्या ख़बर थी वो भी इक दिन बदगुमाँ हो जाएगा कर्ब को इक हुस्न दे दे , ज़ख़्म कर आरास्ता रास्ते का हर नज़ारा ख़ूँचकाँ हो जाएगा सर्द कर दे आग दिल की वर्ना इक दिन हमनशीं तेरा हर इक राज़ चेहरे से अयाँ हो जाएगा ये लहू मक़्तूल का भी रंग लाएगा ज़रूर ऐ सितमगर तू भी इक दिन बेनिशाँ हो जाएगा फ़ैसला वो जिसको हमने दे दी सारी ज़िन्दगी किसने सोचा था कि इक दिन नागहाँ हो जाएगा सोच लो “ मुमताज़ ” सौ सौ बार क़ब्ल-ए-आरज़ू इस अमल से तो तुम्हारा ही ज़ियाँ हो जाएगा बेतकाँ – अनथक , पासबाँ – रक्षक , कर्ब – दर्द , आरास्ता – सजा हुआ , ख़ूँचकाँ – ख़ून टपकता हुआ , हमनशीं – साथ बैठने वाला , अयाँ – ज़ाहिर , मक़्तूल – जिसका ख़ून हुआ हो , नागहाँ – अचानक , क़ब्ल-ए-आरज़ू – इच्छा से पहले , अमल – काम , ज़ियाँ – नुक़सान 

पलट के दूर से अक्सर सदाएं देता है

पलट के दूर से अक्सर सदाएं देता है तलब तो ज़हर की है , वो दवाएं देता है पलट के आ कभी इस सिम्त अब्र ए आवारा तुझे सुलगता ये सहरा सदाएं देता है लिबास उतार के हर बार ज़र्द पत्तों का नई , दरख्तों को मौसम क़बाएं देता है अजीब ढंग से करता है दुश्मनी वो भी कि ज़िन्दगी कि मुझे वो दुआएं देता है बुझाते फिरते हैं जो लोग हस्तियों के चिराग़ उन्हें भी मेहर ये अपनी शुआएँ देता है सुनाई देती है आहट बहार की जब भी वो मेरी रूह को सौ सौ खिजाएँ देता है ज़रा सी बुझने जो लगती है दिल की आग कभी ग़म ए हयात उसे फिर हवाएं देता है है जिस की रूह भी "मुमताज़" तार तार बहुत वो शख्स नंगे सरों को रिदाएँ देता है इस सिम्त- इस तरफ , अब्र-ए-आवारा-आवारा बादल , सहरा- रेगिस्तान , ज़र्द पत्तों का- पीले पत्तों का , क़बाएं- पोशाकें , मेहर- सूरज , शुआएँ- किरणें , खिजाएँ- पतझड़ , हयात-ज़िंदगी , रूह-आत्मा , रिदाएँ- चादरें 

ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं

ज़ब्त की हद से गुज़र कर जब तकानें आ गईं शम्स की ज़द में बलन्दी की उड़ानें आ गईं फिर सफ़र में आज वो इक मोड़ ऐसा आ गया याद हमको कुछ पुरानी दास्तानें आ गईं फिर वही रंगीं ख़ताएँ , लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन आज फिर दाँतों तले अपनी ज़बानें आ गईं इक परिंदे ने अभी खोले ही थे उड़ने को पर हाथ में हर इक शिकारी के कमानें आ गईं रंग रौग़न से सजे बीमार चेहरों की क़तार बिकती है जिनमें मोहब्बत वो दुकानें आ गईं हर क़दम पर अपनी ही ख़ुद्दारियाँ हाइल रहीं रास्ता आसान था लेकिन चट्टानें आ गईं फ़िक्र बेटी की लिए इक बाप रुख़सत हो गया ज़ुल्फ़ में चांदी , उठानों पर ढलानें आ गईं बेहिसी “ मुमताज़ ” दौर-ए-मस्लेहत की देन है ज़द में माल-ओ-ज़र के अब इंसाँ की जानें आ गईं ज़ब्त – सहनशीलता , तकानें – थकानें , शम्स – सूरज , ख़ताएँ – भूलें , लज़्ज़त-ए-ईमाँशिकन – ईमान को तोड़ देने वाला मज़ा , हाइल – अडचन , माल-ओ-ज़र – दौलत और सोना 

ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं

ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं कितने हैं जो घात लगाए बैठे हैं हश्र बपा है , रक़्स-ए-शरर है बस्ती में हम घर की ज़ंजीर लगाए बैठे हैं ज़ीस्त का मोल चुकाएँ इतनी ताब नहीं अरमानों को दिल में दबाए बैठे हैं सुबह-ए-दरख़्शाँ आएगी इस आस पे हम इन राहों पर आँख बिछाए बैठे हैं क़ीमत छोड़ो , जाँ की भीख ही मिल जाए कब से हम दामन फैलाए बैठे हैं धरती पर फिर उतरेगा ईसा कोई ख़्वाबों की क़ंदील जलाए बैठे हैं इक दिन तो “ मुमताज़ ” ये क़िस्मत चमकेगी ख़ुद को ये एहसास दिलाए बैठे हैं रक़्स-ए-शरर – चिंगारियों का नृत्य , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , ताब – ताक़त , सुबह-ए-दरख़्शाँ – चमकदार सुबह 

अपने आप में गुम हो जाना अच्छा लगता है

अपने आप में गुम हो जाना अच्छा लगता है दिल को अब यूँ भी बहलाना अच्छा लगता है सौदे में ईमाँ के जिस दम घाटा हो जाए ख़्वाबों के बाज़ार सजाना अच्छा लगता है यादों की गलियों से हो कर अक्सर जाते हैं खंडर सा इक घर वो पुराना अच्छा लगता है माज़ी की खिड़की से दो पल झांक के देखो तो बचपन का बेबाक ज़माना अच्छा लगता है सारी उम्र का दुश्मन ठहरा , इस पे रहम कैसा इस बेहिस दिल को तड़पाना अच्छा लगता है जब शोले जज़्बात के मद्धम पड़ने लगते हैं अरमानों में हश्र उठाना अच्छा लगता है राहत से “ मुमताज़ ” हमें कुछ ख़ास अदावत है तूफ़ानों में नाव चलाना अच्छा लगता है