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ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं

ख़्वाबों के बाज़ार सजाए बैठे हैं कितने हैं जो घात लगाए बैठे हैं हश्र बपा है , रक़्स-ए-शरर है बस्ती में हम घर की ज़ंजीर लगाए बैठे हैं ज़ीस्त का मोल चुकाएँ इतनी ताब नहीं अरमानों को दिल में दबाए बैठे हैं सुबह-ए-दरख़्शाँ आएगी इस आस पे हम इन राहों पर आँख बिछाए बैठे हैं क़ीमत छोड़ो , जाँ की भीख ही मिल जाए कब से हम दामन फैलाए बैठे हैं धरती पर फिर उतरेगा ईसा कोई ख़्वाबों की क़ंदील जलाए बैठे हैं इक दिन तो “ मुमताज़ ” ये क़िस्मत चमकेगी ख़ुद को ये एहसास दिलाए बैठे हैं रक़्स-ए-शरर – चिंगारियों का नृत्य , ज़ीस्त – ज़िन्दगी , ताब – ताक़त , सुबह-ए-दरख़्शाँ – चमकदार सुबह 

अपने आप में गुम हो जाना अच्छा लगता है

अपने आप में गुम हो जाना अच्छा लगता है दिल को अब यूँ भी बहलाना अच्छा लगता है सौदे में ईमाँ के जिस दम घाटा हो जाए ख़्वाबों के बाज़ार सजाना अच्छा लगता है यादों की गलियों से हो कर अक्सर जाते हैं खंडर सा इक घर वो पुराना अच्छा लगता है माज़ी की खिड़की से दो पल झांक के देखो तो बचपन का बेबाक ज़माना अच्छा लगता है सारी उम्र का दुश्मन ठहरा , इस पे रहम कैसा इस बेहिस दिल को तड़पाना अच्छा लगता है जब शोले जज़्बात के मद्धम पड़ने लगते हैं अरमानों में हश्र उठाना अच्छा लगता है राहत से “ मुमताज़ ” हमें कुछ ख़ास अदावत है तूफ़ानों में नाव चलाना अच्छा लगता है 

दाग़ क़बा के धुल जाएँगे, दाग़ जिगर के धो लेंगे

दाग़ क़बा के धुल जाएँगे , दाग़ जिगर के धो लेंगे मैला है किरदार भी लेकिन कब वो ये सच बोलेंगे मिट जाएगा दर्द भी इक दिन , पा जाएँगे राहत भी गिरते पड़ते वक़्त-ए-रवाँ के साथ जो हम भी हो लेंगे दिन तो चलो कट ही जाएगा रात मगर भारी होगी तारीकी में दिल की ज़मीं पर दर्द की फ़सलें बो लेंगे अंधों की बस्ती में हर सू बातिल की तारीकी है सच का नूर भी फैला हो तो ये बस राह टटोलेंगे लफ़्ज़ हैं ख़ून आलूद हमारे जज़्बों में चिंगारी है वो ही तो लौटाएँगे इस दुनिया से हम जो लेंगे तारीकी – अंधेरा , बातिल – झूठ 

मेरे बिना वो भी तो कितना तन्हा होगा

मेरे बिना वो भी तो कितना तन्हा होगा शायद वो भी मुझ से बिछड़ कर रोया होगा मेरी हर महफ़िल में उस का चर्चा होगा उस की तन्हाई पर मेरा साया होगा झील के साहिल पर वो तन्हा बैठा होगा शाम ढले हर ख़्वाहिश का दिल डूबा होगा रात गए वो आज भी छत पर आया होगा मेरा रस्ता सुबह तक उस ने देखा होगा नफरत , बेपरवाई , छलावा , बद अखलाक़ी मेरे उस के बीच यही इक रिश्ता होगा दी है सज़ा उस ने मुझ को , लेकिन ये सच है उस ने भी इक दर्द ए मुसलसल पाया होगा अब उस को ये जीत चुभे , तो वो ही जाने बाज़ी तो हर हाल में वो ही जीता होगा कब से बैठी सोच रही हूँ मैं बस ये ही क्या उस ने मेरे बारे में सोचा होगा अब हम तो हर हाल में जीना सीख चुके हैं लेकिन वो "मुमताज़" न जाने कैसा होगा तन्हाई-अकेलापन , साहिल-किनारा , दर्द ए मुसलसल-लगातार दर्द 

विसाल

मेरे महबूब तेरे चाँद से चेहरे की क़सम तेरे आग़ोश में मुझको पनाह मिलती है वो तेरे मख़मली होंटों की छुअन का जादू जिस्म पर वो तेरी आँखों की चुभन का जादू वो तेरी साँसों में साँसों का मेरी मिल जाना वो तेरे होंटों से होंटों का मेरे सिल जाना वो तेरे प्यार की शिद्दत , वो तेरी बेताबी धड़कनों की वो सदा , आँखों की वो बेख़्वाबी वो तेरे रेंगते हाथों का नशा , उफ़! तौबा और दो जिस्मों के मिलने की सदा उफ़! तौबा वो तेरी मीठी शरारत , वो तेरी सरगोशी वो मेरी डूबती सिसकी , वो मेरी मदहोशी वो मेरे बंद-ए-क़बा धीरे से खुलते जाना वो तेरी नज़रों से पैकर मेरा धुलते जाना क्या बताऊँ मैं तुझे कैसी ये बेताबी है क्या कहूँ कौन सी उलझन में गिरफ़्तार हूँ मैं मैं तुझे कैसे बताऊँ मेरे दिल की बातें कैसे कह दूँ कि तेरे हिज्र की बीमार हूँ मैं मेरे महबूब तेरे चाँद से चेहरे की क़सम तेरे आग़ोश में मुझ को पनाह मिलती है

ज़िन्दगी

       ज़िन्दगी....! अल्लाह का बख़्शा हुआ नायाब तोहफ़ा... ज़िन्दगी अनमोल है , इसकी कोई क़ीमत नहीं , क़ाबिल अजमेरी कहते हैं दिन परेशाँ है , रात भारी है ज़िन्दगी है कि फिर भी प्यारी है        ज़िन्दगी के अनगिनत रंग हैं। प्यार का रंग , नफ़रत का रंग , ग़म का रंग , ख़ुशी का रंग , जश्न का रंग , मातम का रंग , और ये धनक रंग ज़िन्दगी हमें सिर्फ़ एक बार मिलती है , इसलिए हमारा फ़र्ज़ है कि हम इस ज़िन्दगी को भरपूर जियें , इसके पल पल का लुत्फ़ उठाएँ , इसके एक एक लम्हे में सदियाँ जी लें। लेकिन कैसे... ?        दोस्तो! हमारी ज़िन्दगी नसीब से वाबस्ता है। इस दुनिया में हर किसी को अपने नसीब के मुताबिक़ हर चीज़ आता होती है , किसी को ख़ुशी मिलती है तो किसी के हिस्से में ग़म आते हैं , किसी को अथाह प्यार मिलता है तो कोई नफ़रतों के लिए भी तरस जाता है , किसी को दौलत मिलती है तो किसी को मुफ़्लिसी , फिर भी ख़ुदा की दी हुई इस ज़िन्दगी को जीना पड़ता है....जीना ही पड़ता है। अब ये हम पर है कि हम इस ज़िन्दगी के एक एक लम्हे को हँस कर जी लें , या यूँ ही रो रो कर खो दें। ये सच है कि हर इंसान को ज़िन्दगी से एक जैस

नज़्म – टूटी कश्ती

तेरा वादा भी इक क़यामत है ज़िंदगी मेरी कमनसीब रही टूट कर गिरता हुआ जैसे कि तारा कोई यूँ तेरे वादे से लिपटी हुई उम्मीदें हैं कश्तियाँ टूटी हैं टकरा के जिन जज़ीरों से मौत की अंधी बस्तियों के वो हमसाए हैं दिल के आईने की बिखरी हुई किरचों की चुभन है शादीद इतनी कि जलने लगा अब सारा बदन मेरे महबूब मेरे टीसते ज़ख़्मों की क़सम तेरे आने का गुमाँ होता है हर आहट पर जब हिला देती हैं ज़ंजीर हवाएँ दर की लौट आती है नज़र गश्त लगा कर मायूस और फिर अपनी उम्मीदों पे हंसी आती है नाख़ुदा मेरे कभी वक़्त अगर मिल जाए दो घड़ी मुझ को बताना तो सही टूटी कश्ती से समंदर को कैसे पार करूँ जज़ीरों से – द्वीपों से ,  हमसाए – पड़ोसी , नाख़ुदा – मल्लाह