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हम ने सज़ा ये पाई है अपने शआर की

हम ने सज़ा ये पाई है अपने शआर की गुम हो गई धुएँ में तजल्ली निहार की तेरा ख़याल भी न जिसे पार कर सका दीवार थी बुलंद ग़म-ए-रोज़गार की ये क़ैद भी ख़लल है मेरे ही दिमाग़ का मैं ख़ुद ही हूँ गिरफ़्त में अपने हिसार की सोचों में उसकी उलझा रहे ज़हन हमेशा है एक मोअम्मा ये जलन दिल फ़िगार की आहट ये किसकी आती है उजड़े मकान से ये किसने मेरी डूबती धड़कन शुमार की दुनिया में ये ख़ुलूस की हालत है दोस्तो हो जुस्तजू में जैसे कि ताइर शिकार की “ मुमताज़ ” दिल जो धड़का तो एहसास हुआ है है आँच अभी राख में बुझते शरार की शआर – चलन , तजल्ली – रौशनी , निहार – सुबह , ग़म-ए-रोज़गार – रोज़मर्रा के दुख , ख़लल – सनक , गिरफ़्त – पकड़ , हिसार – घेरा , मोअम्मा – पहेली , फ़िगार – घायल , शुमार की – गिनी , ख़ुलूस – शुद्धता , ताइर – बाज़ , शरार – अंगारा 

तो इस तलाश का भी वो ही अंजाम हुआ जो होना था

तो इस तलाश का भी वो ही अंजाम हुआ जो होना था जो क़ैद थी रेत हथेली में , उसको तो फिसल कर खोना था देखे जो ख़्वाब अधूरे थे , जो शाम मिली वो बोझल थी सरमाया था जो इन आँखों का , वो एक ही ख़्वाब सलोना था राहें तो बहुत आसाँ थीं मगर जिस जगह क़याम किया हमने आतिश का नगर था , दर्द का घर , काँटों पे हमें अब सोना था क्या साथ हमारे बंदिश थी , कैसी थी तुम्हारी मजबूरी छोड़ो अब इस अफ़साने को वो हो के रहा जो होना था रातों की वुसअत और उसपर आसान न था ये काम भी कुछ बिखरे थे फ़लक पर जो तारे , पलकों में उन्हें पिरोना था एहसास की शिद्दत से अब तक “ मुमताज़ ” मिली न निजात हमें अब वो भी भरा है अश्कों से जो दिल का तही इक कोना था क़याम – ठहरना , आतिश – आग , वुसअत – विशालता , फ़लक – आसमान , निजात – छुटकारा , तही – खाली

कुछ जवाज़ उस के तसव्वुर में भी दिल पाता नहीं

कुछ जवाज़ उस के तसव्वुर में भी दिल पाता नहीं  किस तरह उस को भुलाऊं , कुछ समझ आता नहीं बन के चिंगारी बरसता है ख़यालों पर , कि अब अब्र बन कर वो तसव्वुर पर कभी छाता नहीं हर कहीं है इक जलन , इक कश्मकश , सौ वहशतें अब कोई मंज़र हमारे दिल को बहलाता नहीं ले गया वो साथ अपने ख़ुशबुओं का क़ाफ़िला फूल कोई भी खिले गुलशन को महकाता नहीं चार सू है इक सियाही , हर तरफ तारीकियाँ किस तरफ जाएं कि जब कुछ भी नज़र आता नहीं हम को अपने दिल से है "मुमताज़" बस ये ही गिला अक़्ल आ जाती तो धोका इस क़दर खाता नहीं जवाज़-सही होना , तसव्वुर-कल्पना , तारीकियाँ-अँधेरे 

अलम सर फोड़ लें, सब हसरतें रंजूर हो जाएं

अलम सर फोड़ लें , सब हसरतें रंजूर हो जाएं हमारी एक हिचकी से सभी ग़म दूर हो जाएं अना के सब घरोंदे एक पल में चूर हो जाएं हम अपनी हसरतों से इस क़दर मजबूर हो जाएं हर इक दर्द ओ अलम , हर रंज से अब दूर हो जाएं हम अपनी वहशतों में इस क़दर महसूर हो जाएं तड़पने की इजाज़त हम अता कर दें अगर दिल को तो ख़्वाबों के ये शीशे गिर के चकनाचूर हो जाएं अना का सर कुचलने से तो कुछ हासिल नहीं होगा तक़ाज़ा रंजिशों का है कि हम मग़रूर हो जाएं मेरी हस्ती न हो तो ज़ख़्मी हो जाए अना उस की न वो जलवा हो तो आँखें मेरी बेनूर हो जाएं गुज़िश्ता याद का "मुमताज़" गर आसेब लग जाए तमन्नाओं के ये खंडर अभी मसहूर हो जाएं अलम-दर्द , रंजूर-दुखी , अना-अहम् , महसूर-दायरे में बंद , अता कर दें- बख्श दें , मगरूर-घमंडी , बेनूर-अँधेरा , गुज़िश्ता-बीता हुआ , आसेब- आत्मा का क़ब्ज़ा , मसहूर- जादू से प्रभावित  

जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले

जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले तो हमसफ़री की ख़ातिर साथ सब रंज-ओ-अलम निकले न जुरअत करते टकराने की जो पहले समझ जाते ज़माने के रिवाज-ओ-रस्म भी परबत जज़म निकले बड़ा था नाज़ ख़ुद पर , मैं नहीं डरती ज़माने से ज़माने के इरादे मेरे हाथों पर रक़म निकले शिकस्ता हो के जब बिखरी ये हस्ती , होश तब आया शहाना शान से आख़िर मेरे दिल के वहम निकले ये आलम बारहा गुज़रा है हम पर तेरी क़ुर्बत में लबों पर हो तबस्सुम और निगाह-ए-नाज़ नम निकले ये दर-ब-दरी ये शौक़ आवारगी का और सफ़र की धुन न वापस आ सके , इक बार जो घर से क़दम निकले तेरी यादों के ये साए अलामत ज़िन्दगी की हैं जो यादों का ये शीराज़ा बिखर जाए तो दम निकले हमें इस इश्क़ ने “ मुमताज़ ” दीवाना बना डाला जिन्हें माबूद रखते थे वो पत्थर के सनम निकले सू-ए-दश्त – जंगल की तरफ़ , रंज-ओ-अलम – दुख-दर्द , जज़म – अटल , रक़म – लिखा हुआ , शिकस्ता हो के – टूट के , क़ुर्बत – समीपता , तबस्सुम – मुस्कराहट , अलामत – निशानी , शीराज़ा – बंधन , माबूद – पूज्य , सनम – मूर्ति 

जीना लाज़िम भी है, जीने का बहाना भी नहीं

जीना लाज़िम भी है , जीने का बहाना भी नहीं पुर्सिश-ए-हाल को अब तो कोई आता भी नहीं वक़्त की धूप कड़ी है , जले जाते हैं क़दम सर पे छत भी , दीवार का साया भी नहीं हर कोई गुज़रा किया मुझसे बचा कर दामन और मैं ने किसी हमराह को रोका भी नहीं शिद्दत-ए-तश्नगी , और दूर तलक सेहरा में एक दरिया तो बड़ी चीज़ है , क़तरा भी नहीं ख़्वाब देखा था कि हाथों में मेरे है सूरज और आँगन में मेरे धूप का टुकड़ा भी नहीं ज़िन्दगी एक ज़ख़ीरा-ए-हवादिस है मगर हादसा बनना तो मैं ने कभी चाहा भी नहीं मैं वो मुफ़लिस कि मेरा दिल भी तही , जाँ भी तही और हाथों में मेरे भीक का कासा भी नहीं मैं ने दुनिया से अलग अपना सफ़र काटा है मेरी नज़रों से बचा कोई तमाशा भी नहीं आग का दरिया है उल्फ़त ये सुना है “ मुमताज़ ” मेरे हाथों में तो शोला भी , शरारा भी नहीं 

दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं

दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं अपनी आदत है कि हम ख़ुद को सज़ा देते हैं कैसी लगती है ये दुनिया को दिखा देते हैं ज़िन्दगी आ , तेरी तस्वीर बना देते हैं बुझ भी जाएँगे तो क्या , कुछ तो उजाला होगा कम हो गर तेल तो लौ और बढ़ा देते हैं फोड़ लेते हैं हर इक आबला दिल का ख़ुद ही हर नए ज़ख़्म को फिर आब-ए-बक़ा देते हैं ढूँढ लेगी तो हमें और अज़ीयत देगी ख़ुद को हम ज़ीस्त की आँखों से छुपा देते हैं ज़ख़्म खिलते हैं , उभरते हैं , सँवरते हैं कि ये शब की तन्हाई में कुछ और मज़ा देते हैं उनके आने की जो आहट हमें मिल जाती है हम कि ज़ख़्मों को सर-ए-राह बिछा देते हैं वो करें उनको जो करना है , हमें रंज नहीं हम तो “ मुमताज़ ” उन्हें खुल के दुआ देते हैं आबला – छाला , आब-ए-बक़ा – अमृत , अज़ीयत – यातना , ज़ीस्त – जीवन