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जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले

जब अपनी ज़िन्दगी से तंग सू-ए-दश्त हम निकले तो हमसफ़री की ख़ातिर साथ सब रंज-ओ-अलम निकले न जुरअत करते टकराने की जो पहले समझ जाते ज़माने के रिवाज-ओ-रस्म भी परबत जज़म निकले बड़ा था नाज़ ख़ुद पर , मैं नहीं डरती ज़माने से ज़माने के इरादे मेरे हाथों पर रक़म निकले शिकस्ता हो के जब बिखरी ये हस्ती , होश तब आया शहाना शान से आख़िर मेरे दिल के वहम निकले ये आलम बारहा गुज़रा है हम पर तेरी क़ुर्बत में लबों पर हो तबस्सुम और निगाह-ए-नाज़ नम निकले ये दर-ब-दरी ये शौक़ आवारगी का और सफ़र की धुन न वापस आ सके , इक बार जो घर से क़दम निकले तेरी यादों के ये साए अलामत ज़िन्दगी की हैं जो यादों का ये शीराज़ा बिखर जाए तो दम निकले हमें इस इश्क़ ने “ मुमताज़ ” दीवाना बना डाला जिन्हें माबूद रखते थे वो पत्थर के सनम निकले सू-ए-दश्त – जंगल की तरफ़ , रंज-ओ-अलम – दुख-दर्द , जज़म – अटल , रक़म – लिखा हुआ , शिकस्ता हो के – टूट के , क़ुर्बत – समीपता , तबस्सुम – मुस्कराहट , अलामत – निशानी , शीराज़ा – बंधन , माबूद – पूज्य , सनम – मूर्ति 

जीना लाज़िम भी है, जीने का बहाना भी नहीं

जीना लाज़िम भी है , जीने का बहाना भी नहीं पुर्सिश-ए-हाल को अब तो कोई आता भी नहीं वक़्त की धूप कड़ी है , जले जाते हैं क़दम सर पे छत भी , दीवार का साया भी नहीं हर कोई गुज़रा किया मुझसे बचा कर दामन और मैं ने किसी हमराह को रोका भी नहीं शिद्दत-ए-तश्नगी , और दूर तलक सेहरा में एक दरिया तो बड़ी चीज़ है , क़तरा भी नहीं ख़्वाब देखा था कि हाथों में मेरे है सूरज और आँगन में मेरे धूप का टुकड़ा भी नहीं ज़िन्दगी एक ज़ख़ीरा-ए-हवादिस है मगर हादसा बनना तो मैं ने कभी चाहा भी नहीं मैं वो मुफ़लिस कि मेरा दिल भी तही , जाँ भी तही और हाथों में मेरे भीक का कासा भी नहीं मैं ने दुनिया से अलग अपना सफ़र काटा है मेरी नज़रों से बचा कोई तमाशा भी नहीं आग का दरिया है उल्फ़त ये सुना है “ मुमताज़ ” मेरे हाथों में तो शोला भी , शरारा भी नहीं 

दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं

दर्द को दर्द का एहसास दिला देते हैं अपनी आदत है कि हम ख़ुद को सज़ा देते हैं कैसी लगती है ये दुनिया को दिखा देते हैं ज़िन्दगी आ , तेरी तस्वीर बना देते हैं बुझ भी जाएँगे तो क्या , कुछ तो उजाला होगा कम हो गर तेल तो लौ और बढ़ा देते हैं फोड़ लेते हैं हर इक आबला दिल का ख़ुद ही हर नए ज़ख़्म को फिर आब-ए-बक़ा देते हैं ढूँढ लेगी तो हमें और अज़ीयत देगी ख़ुद को हम ज़ीस्त की आँखों से छुपा देते हैं ज़ख़्म खिलते हैं , उभरते हैं , सँवरते हैं कि ये शब की तन्हाई में कुछ और मज़ा देते हैं उनके आने की जो आहट हमें मिल जाती है हम कि ज़ख़्मों को सर-ए-राह बिछा देते हैं वो करें उनको जो करना है , हमें रंज नहीं हम तो “ मुमताज़ ” उन्हें खुल के दुआ देते हैं आबला – छाला , आब-ए-बक़ा – अमृत , अज़ीयत – यातना , ज़ीस्त – जीवन 

इक पुराना हादसा फिर याद मुझको आ गया

इक पुराना हादसा फिर याद मुझको आ गया इक तसव्वर आज फिर दिल को मेरे तड़पा गया ये तबस्सुम का तसल्सुल जो मेरे लब पर खिला मेरे इस अंदाज़ से फिर दर्द धोखा खा गया सादगी का ये सिला पाया दिल-ए-मजरूह ने बारहा खाया है धोखा , बारहा लूटा गया आज गुज़रा सा इधर से याद का इक क़ाफ़िला वो ग़ुबार उट्ठा कि दिल पर गर्द बन कर छा गया साज़िशें ये थीं मुक़द्दर की कि कश्ती का मेरी रुख़ अभी साहिल की जानिब था कि तूफ़ाँ आ गया भूल जाने के सिवा अब तो कोई चारा नहीं तेरे हर अंदाज़ से ऐ दोस्त जी उकता गया हम उसे जाते हुए देखा किए , और उसने भी फिर पलट कर भी न देखा अबके वो ऐसा गया ये भी इक “ मुमताज़ ” उसका दिलनशीं अंदाज़ है आज फिर ख़्वाबों में मीठी याद बन कर आ गया तसव्वर – कल्पना , तबस्सुम का तसल्सुल – लगातार मुसकराना , मजरूह – घायल , बारहा – बार बार , जानिब – तरफ़ , चारा – इलाज , दिलनशीं – दिल में समाने वाला 

ज़िंदगी तेरे इंतज़ार में है

ज़िंदगी तेरे इंतज़ार में है इक ख़िज़ाँ इस बरस बहार में है वुसअतें बढ़ रही हैं राहों की वर्ना मंज़िल तो इंतज़ार में है हो सके तो तू ढूंढ ले हमको ये तो बस तेरे इख़्तियार में है एक ख़मोशी है रूह से दिल तक एक ख़ामोशी रेगज़ार में है उसको रुख़सत हुए ज़माना हुआ आँख उलझी अभी ग़ुबार में है वहशी , आवारासिफ़त , बदक़िस्मत दिल अभी तक इसी शुमार में है तेरी तस्वीर , तेरा नक़्श-ओ-निगार आज तक चश्म-ए-अश्कबार में है मेरी “ मुमताज़ ” ये बेख़्वाब निगाह आज तक तेरे इंतज़ार में है 

मेरी हस्ती और दुनिया के लाख सवाल

मेरी हस्ती और दुनिया के लाख सवाल कैसे उरियाँ कर दूँ मैं अपने अहवाल जब भी मेरे ज़ेहन में आया तेरा ख़याल पूछ न उसके बाद हुआ क्या दिल का हाल कुछ दुनिया के खेल हैं कुछ क़िस्मत का जाल किसने पाई बलन्दी , कौन हुआ पामाल ये हस्ती ज़ंजीर मेरी रूह-ओ-जाँ की और जीना भी क्या है गोया एक वबाल फिर मचले है , दिल का खिलौना माँगे है ज़िद ये मोहब्बत करती है मिस्ल-ए-अतफ़ाल तुझ में तेरा “ मुमताज़ ” है क्या , सब उसका है तेरे फ़न कब तेरे हैं , क्या तेरा कमाल उरियाँ – नंगा , अहवाल – परिस्थितियाँ , पामाल – पाँव के नीचे कुचला जाना , वबाल – मुसीबत , मिस्ल-ए-अतफ़ाल – बच्चों की तरह 

बन गए हैं आज तो तर्याक़ वो मेरे लिये

बन गए हैं आज तो तर्याक़ वो मेरे लिये मैं ने सारी ज़िन्दगी जो ज़हर के साग़र पिये उसकी हर इक बात में थी इक सवालों की लड़ी इक मोअम्मा बन गया था आज वो मेरे लिये हमने सौ सौ बार की कोशिश , मगर सब रायगाँ दिल रफ़ू हो ही न पाया , हम ने सौ टुकड़े सिये जाने किस सूरत से टूटेगा फ़ुसून-ए-आरज़ू हुस्न की सौ सूरतें हैं , इश्क़ के सौ ज़ाविये कौन जाने कितने पेच-ओ-ख़म हैं राह-ए-इश्क़ में कौन सा है मोड़ आगे राह में , अब देखिये वो भी था फ़ैयाज़ , बाँटे उसने भी जी भर के ग़म हम भी दामन भर के लाए ज़ख़्म जो उसने दिये ले रही है फिर से सुब्ह-ए-आरज़ू अंगड़ाइयाँ ज़िन्दगी की सिम्त के सारे दरीचे खोलिये रोज़ मैं मरती रही , मर मर के फिर जीती रही कितने ही “ मुमताज़ ” मेरे इम्तेहाँ उसने लिये तर्याक़ – ज़हर मारने की दवा , साग़र – पियाले , मोअम्मा – पहेली , रायगाँ – बेकार , किस सूरत – किस तरह , फ़ुसून-ए-आरज़ू – इच्छाओं का जादू , ज़ाविये – पहलू , पेच-ओ-ख़म – मोड़ और घुमाव , फ़ैयाज़ – बड़े दिल वाला , सिम्त – तरफ़ , दरीचे – खिड़कियाँ