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ज़िंदगी तेरे इंतज़ार में है

ज़िंदगी तेरे इंतज़ार में है इक ख़िज़ाँ इस बरस बहार में है वुसअतें बढ़ रही हैं राहों की वर्ना मंज़िल तो इंतज़ार में है हो सके तो तू ढूंढ ले हमको ये तो बस तेरे इख़्तियार में है एक ख़मोशी है रूह से दिल तक एक ख़ामोशी रेगज़ार में है उसको रुख़सत हुए ज़माना हुआ आँख उलझी अभी ग़ुबार में है वहशी , आवारासिफ़त , बदक़िस्मत दिल अभी तक इसी शुमार में है तेरी तस्वीर , तेरा नक़्श-ओ-निगार आज तक चश्म-ए-अश्कबार में है मेरी “ मुमताज़ ” ये बेख़्वाब निगाह आज तक तेरे इंतज़ार में है 

मेरी हस्ती और दुनिया के लाख सवाल

मेरी हस्ती और दुनिया के लाख सवाल कैसे उरियाँ कर दूँ मैं अपने अहवाल जब भी मेरे ज़ेहन में आया तेरा ख़याल पूछ न उसके बाद हुआ क्या दिल का हाल कुछ दुनिया के खेल हैं कुछ क़िस्मत का जाल किसने पाई बलन्दी , कौन हुआ पामाल ये हस्ती ज़ंजीर मेरी रूह-ओ-जाँ की और जीना भी क्या है गोया एक वबाल फिर मचले है , दिल का खिलौना माँगे है ज़िद ये मोहब्बत करती है मिस्ल-ए-अतफ़ाल तुझ में तेरा “ मुमताज़ ” है क्या , सब उसका है तेरे फ़न कब तेरे हैं , क्या तेरा कमाल उरियाँ – नंगा , अहवाल – परिस्थितियाँ , पामाल – पाँव के नीचे कुचला जाना , वबाल – मुसीबत , मिस्ल-ए-अतफ़ाल – बच्चों की तरह 

बन गए हैं आज तो तर्याक़ वो मेरे लिये

बन गए हैं आज तो तर्याक़ वो मेरे लिये मैं ने सारी ज़िन्दगी जो ज़हर के साग़र पिये उसकी हर इक बात में थी इक सवालों की लड़ी इक मोअम्मा बन गया था आज वो मेरे लिये हमने सौ सौ बार की कोशिश , मगर सब रायगाँ दिल रफ़ू हो ही न पाया , हम ने सौ टुकड़े सिये जाने किस सूरत से टूटेगा फ़ुसून-ए-आरज़ू हुस्न की सौ सूरतें हैं , इश्क़ के सौ ज़ाविये कौन जाने कितने पेच-ओ-ख़म हैं राह-ए-इश्क़ में कौन सा है मोड़ आगे राह में , अब देखिये वो भी था फ़ैयाज़ , बाँटे उसने भी जी भर के ग़म हम भी दामन भर के लाए ज़ख़्म जो उसने दिये ले रही है फिर से सुब्ह-ए-आरज़ू अंगड़ाइयाँ ज़िन्दगी की सिम्त के सारे दरीचे खोलिये रोज़ मैं मरती रही , मर मर के फिर जीती रही कितने ही “ मुमताज़ ” मेरे इम्तेहाँ उसने लिये तर्याक़ – ज़हर मारने की दवा , साग़र – पियाले , मोअम्मा – पहेली , रायगाँ – बेकार , किस सूरत – किस तरह , फ़ुसून-ए-आरज़ू – इच्छाओं का जादू , ज़ाविये – पहलू , पेच-ओ-ख़म – मोड़ और घुमाव , फ़ैयाज़ – बड़े दिल वाला , सिम्त – तरफ़ , दरीचे – खिड़कियाँ

दिल में फिर हलचल हुई, वो इक निशाँ फिर जाग उठा

दिल में फिर हलचल हुई , वो इक निशाँ फिर जाग उठा इक इरादा , इक तसव्वर नागहाँ फिर जाग उठा फिर से इक सुबह-ए-तमन्ना दिल में जाग उठ्ठी है आज जो बसा था दिल में वो शहर-ए-बुताँ फिर जाग उठा मस्लेहत की कश्तियाँ हैं दूर साहिल से अभी आरज़ूओं का वो बहर-ए-बेकराँ फिर जाग उठा किसने रौशन की है दिल पर ये निगाह-ए-इल्तेफ़ात ये ज़मीं रौशन हुई , लो आस्माँ फिर जाग उठा ले रही हैं फिर से बेकल ख़्वाहिशें अंगड़ाइयाँ फिर सफ़र जारी हुआ है , कारवाँ फिर जाग उठा जल चुका था जो गुलिस्ताँ , फिर से वो गुलज़ार है खिल उठे फिर गुल चमन में बाग़बाँ फिर जाग उठा लगता है फिर आज कोई हादसा क़िस्मत में है झूम उठी “ मुमताज़ ” ख़्वाहिश , वो गुमाँ फिर जाग उठा  तसव्वर – कल्पना , नागहाँ – अचानक , शहर-ए-बुताँ – सुंदर लोगों का शहर , मस्लेहत – समझौता , बहर-ए-बेकराँ – अथाह सागर , इल्तेफ़ात – मेहरबानी , गुमाँ – ग़लतफ़हमी

महंगाई मार गई (बुरा न मानो...होली है)

दीवाली को लाए जो मिठाई मार गई सर्दी में रज़ाई की बनवाई मार गई सियासी सियारों की रंगाई मार गई भाजपा की हम को भाजपाई मार गई बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई पिछले साल बारिश न आई मार गई अब के साल हो कर भी भाई मार गई अबके बम्पर फ़स्ल की कमाई मार गई किसानों ने लागत न पाई मार गई बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई सदन में नेताओं की जम्हाई मार गई जनता को मनमोहन की भलाई मार गई कुछ तो रिश्वतख़ोरों की ढिठाई मार गई कॉमन वेल्थ खेलों की मलाई मार गई बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई किंगफ़िशर कलेंडर की नंगाई मार गई माल्या ने खाई वो मलाई मार गई क़र्ज़ ले के भागे तो भगाई मार गई हमको इनके क़र्ज़े की भरपाई मार गई बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई कुछ तो हमें जियो की कमाई मार गई और कुछ मुकेश की भलाई मार गई दूध में पड़ी है जो खटाई मार गई मल्टीनेशनल चोरों की कमाई मार गई बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई कुछ तो नोटबंदी की सच्चाई मार गई और कुछ ये मोदी की सफ़ाई मार गई जम के इनकम टैक्स की खिंचाई मार गई हम को अच्छे दिनों की अच्छाई मार गई बाक़ी कुछ बचा तो महंगाई मार गई 

जुनूँ में मार के ठोकर जलाल-ओ-हश्मत पर

जुनूँ में मार के ठोकर जलाल-ओ-हश्मत पर निकल तो आए हैं इस अजनबी मुसाफ़त पर किसे ख़बर थी कि तू भी नज़र बचा लेगा यक़ीन हम को बहुत था तेरी मोहब्बत पर अना भी ऐसी कि ठोकर पे है जहाँ सारा ग़ुरूर हम को बहुत है इस अपनी आदत पर ज़रा सा झुक के ज़माने को जीत लें लेकिन तरस भी आता नहीं हमको अपनी हालत पर निकल भी जाए तमन्ना , झुके न सर भी कहीं ये सारी बात फ़क़त मुनहसिर है हिम्मत पर जो चाह लें तो फ़लक तक भी हम पहुँच जाएँ निसार होती है क़िस्मत हमारी अज़्मत पर झुका है सर तो फ़क़त तेरे आस्ताने पर है नाज़ हम को तो “ मुमताज़ ” इस इबादत पर   जलाल-ओ-हश्मत – महानता और शान-ओ-शौकत , मुसाफ़त – सफ़र , फ़क़त – सिर्फ़ , मुनहसिर – based, अज़्मत – महानता , आस्ताने पर – चौखट पर 

जबीं पे आपकी बूँदें हैं क्यूँ पसीने की

जबीं पे आपकी बूँदें हैं क्यूँ पसीने की सज़ा तो हमको मिली टुकड़ा टुकड़ा जीने की थपेड़े उसको फिराते रहे यहाँ से वहाँ किनारा छूने की ख़्वाहिश रही सफ़ीने की गुमाँ सा होता है हर शख़्स पर अदू का क्यूँ महक सी आती है सड़कों से कैसी क़ीने की जो उस के दिल में रहा दफ़्न राज़ बन के सदा ख़बर मिली भी कहाँ हम को उस दफ़ीने की शआर सबका तिजारत है इस ज़माने में है किसको क़द्र मोहब्बत के इस नगीने की तड़क के टूट गए जाने कैसे सब टाँके हज़ार कोशिशें कीं हम ने ज़ख़्म सीने की न हम थे मीरा न “ मुमताज़ ” थे कोई सुक़रात सज़ा ये कैसे मिली हमको ज़हर पीने की जबीं – माथा , सफ़ीने की – नाव की , अदू – दुश्मन , क़ीने की – धोखे की , दफ़ीने की – दबे हुए ख़ज़ाने की , शआर – चलन , तिजारत – व्यापार