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ज़िन्दगी कितनी सुबुकगाम हुई जाती है

ज़िन्दगी कितनी सुबुकगाम हुई जाती है दिन ढला जाता है और शाम हुई जाती है ख़ुद ब ख़ुद मौत की जानिब बढ़े जाते हैं क़दम देर ऐ गर्दिश-ए-अय्याम हुई जाती है छेड़ देता है तेरा ज़िक्र कोई कानों में और भी शाम गुलअंदाम हुई जाती है वक़्त कटता ही नहीं , कैसी भी कोशिश कर लें ज़िन्दगी कितनी ख़ुनकगाम हुई जाती है अपने होने को चलो हम कोई मानी दे दें मुफ़्त ये ज़िन्दगी गुमनाम हुई जाती है खौफ़ रुसवाई का हमको नहीं “ मुमताज़ ” मगर अब तो ये ज़िन्दगी दुश्नाम हुई जाती है सुबुकगाम – तेज़ रफ़्तार , जानिब – तरफ़ , गर्दिश-ए-अय्याम – दिनों का गुज़रना , गुलअंदाम – लाल , ख़ुनकगाम – धीमी , दुश्नाम – गाली 

मुर्दा एहसास का मातम कर लें

मुर्दा एहसास का मातम कर लें और कुछ सिलसिले बाहम कर लें अब सफ़र करना है सहरा सहरा क़ैद हम आँख में शबनम कर लें फ़ैसला ये है मुक़द्दर का कि हम अपनी ख़ुद्दारी का सर ख़म कर लें रात है , और दिये में तेल है कम रौशनी थोड़ी सी मद्धम कर लें रस्म-ओ-राहत न हो , सलाम तो हो सिलसिले इतने कम अज़ कम कर लें बाहम – आपस में , सहरा – रेगिस्तान , शबनम – ओस , ख़म कर लें – झुका लें , कम अज़ कम – कम से कम 

आज के दौर के तुंद माहौल में

आज के दौर के तुंद माहौल में ख़ून-ए-इंसानियत यूँ उछलता रहा आदमीयत , अना , प्यार , ख़ुद्दारी का क़त्ल होता रहा , ज़ुल्म पलता रहा रात और दिन की इन गर्दिशों में जहाँ इक तरफ़ जश्न है , इक तरफ़ यास है अहल-ए-महफ़िल को इस का पता तक नहीं अहल-ए-ग़ुर्बत पे क्या दौर चलता रहा घर की ख़ातिर वतन छोड़ आए थे जो उनको शहरों की ज़िन्दादिली खा गई शाहज़ादों की इशरत की तस्वीर में भर के ख़ूँ उनका लाशा निकलता रहा ये सियासत बड़ी क़ीमती चीज़ है क्या बताएँ चुकाना पड़ा मोल क्या ठेकेदारी सियासत की चलती रही और कश्मीर-ओ-गुजरात जलता रहा जब भी अंगड़ाइयाँ ले के उट्ठी ख़ुशी तब दबे पाँव ग़म की भी आमद हुई ज़िन्दगी के हर इक मोड़ यूँ हुआ धूप और छाँव का खेल चलता रहा तुंद – बिगड़ा हुआ , यास – उदासी , ग़ुर्बत – ग़रीबी , इशरत – ऐश , आमद – आगमन 

हर टीस को नग़्मों के अंदाज़ में ढाला है

हर टीस को नग़्मों के अंदाज़ में ढाला है जीने का नया हम ने अंदाज़ निकाला है करनी में तबाही है , कथनी में उजाला है यारान-ए-सियासत का हर रंग निराला है तस्वीर-ए-तमन्ना-ए-बेरंग को भी हम ने हर रंग से सींचा है , हर रूप में ढाला है नादान तमन्ना को बहलाएँ तो अब कैसे अब तक तो हर इक ज़िद को उम्मीद पे टाला है तारीकी के पंजों ने जकड़ा है जो दुनिया को सिमटी सी तजल्ली है , सहमा सा उजाला है इस ज़हर-ए-ख़बासत का तर्याक़ मिले कैसे ये नाग तअस्सुब का हम ने ही तो पाला है ये वक़्त-ए-रवाँ भी तो मरहम न बना इसका रह रह के तपकता है , जो रूह पे छाला है बाज़ी पे सियासत की शरख़ेज़ हैं सब चालें और फ़िक्र पे पाबंदी , गुफ़्तार पे ताला है क़िस्मत के अँधेरों से “ मुमताज़ ” को डर कैसा अब दूर तलक तेरी आँखों का उजाला है यारान-ए-सियासत – राजनीतिज्ञ , तस्वीर-ए-तमन्ना-ए-बेरंग – इच्छाओं की बेरंग तस्वीर , तारीकी – अँधेरा ,  तजल्ली – जगमगाहट , ख़बासत – बुराई , तर्याक़ – दवा , तअस्सुब – भेदभाव , वक़्त-ए-रवाँ – गुज़रता हुआ वक़्त , शरख़ेज़ – फ़सादी , गुफ़्तार – बात चीत 

दहका हुआ है दिल में जो शोला सा प्यार का

दहका हुआ है दिल में जो शोला सा प्यार का चेहरे पे अक्स पड़ता है जलते शरार का फूलों की नज़ाकत ने भी दम तोड़ दिया है अब के अजीब आया है मौसम बहार का क्या क्या थे हसरतों के भँवर उस निगाह में उतरा है दिल में वार नज़र की कटार का उसने भी आज जाग के काटी तमाम रात कुछ तो असर हुआ निगह-ए-अश्कबार का ज़ख़्म-ए-जिगर का अक्स पड़ा है कहाँ कहाँ चेहरे पे अबके रंग अजब है निखार का अंगड़ाई ले के उठती हैं सीने में हसरतें मिलता है जब जवाब नज़र की पुकार का इक रोज़ जो पिलाई थी उस निगह-ए-मस्त ने अब तक ज़रा ज़रा है असर उस ख़ुमार का उस हुस्न-ए-बेपनाह के आरिज़ की गर्मियाँ “ मुमताज़ ” ख़ाक हो गया जंगल चुनार का शरार – अंगारा , निगह-ए-अश्कबार – आँसू भरी आँख , निगह-ए-मस्त – नशीली आँख , आरिज़ – गाल , चुनार – देवदार 

बचपन की एक ग़ज़ल - दूर रह कर भी दिल में रहते हैं

दूर रह कर भी दिल में रहते हैं आप आँखों के तिल में रहते हैं ग़म-ए-दौराँ से छुप छुपा कर हम तेरी पलकों के ज़िल में रहते हैं हम सियहबख़्तों के तारीक नसीब उनकी आँखों के तिल में रहते हैं कितने शोले , शरारे , अंगारे दिल की बर्फ़ानी सिल में रहते हैं भूल जाएँ हम उनको लेकिन वो जिस्म के आब-ओ-गिल में रहते हैं अब भी “ मुमताज़ ” हज़ारों अरमाँ इस दिल-ए-मुज़महिल में रहते हैं ग़म-ए-दौराँ – दुनिया का ग़म , ज़िल – साया , सियहबख़्त – काली क़िस्मत , तारीक – अँधेरे , शरारे – चिंगारियाँ , आब-ओ-गिल – पानी और मिट्टी , मुज़महिल – उदास 

क्यूँ इतनी ख़ामोश है ऐ मेरी तन्हाई, कुछ तो बोल

क्यूँ इतनी ख़ामोश है ऐ मेरी तन्हाई , कुछ तो बोल रात की इस वुसअत में आ , अब दिल के गहरे राज़ तो खोल जंगल जंगल , सहरा सहरा तेरा ये बेसिम्त सफ़र भटकेगी कब तक यूँ ही पागल , सौदाई , यूँ मत डोल ये जदीद दुनिया है , ग़रज़परस्ती अब फ़ैशन में है प्यार , वफ़ा , मेहनत , ख़ुद्दारी , छोड़ो , इनका क्या है मोल आज के दौर में जीना , और फिर हँसना , हिम्मत वाले हो पहनोगे “ मुमताज़ ” कहाँ तक ये ख़ुशआहंगी का ख़ोल वुसअत – फैलाव , बेसिम्त – दिशा विहीन , सौदाई – पागल , जदीद – आधुनिक , ग़रज़परस्ती – ख़ुदग़रज़ी , ख़ुशआहंगी – खुशमिज़ाजी