हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं
हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं ऐब ये सब से बड़ा है कि वफ़ा रखते हैं हर नए ज़ख़्म को सर आँखों पे रक्खा है सदा दर्द सीने में तलब से भी सिवा रखते हैं मा ’ रेका माना है दुश्वार , मगर हम भी तो दिल में तूफ़ान , निगाहों में बला रखते हैं कितनी तारीकियाँ सीने में छुपा कर भी हम हर अँधेरे में तबस्सुम की ज़िया रखते हैं हर नफ़स एक अज़ीयत है तो धड़कन है वबाल एक इक साँस में सौ दर्द छुपा रखते हैं क्या कहा ? आपको हम से है अदावत ? साहब जाइए जाइए , हम भी तो ख़ुदा रखते हैं बात की बात में लड़ने पे हुए आमादा तीर हर वक़्त जो चिल्ले पे चढ़ा रखते हैं जाने कब उसकी कोई याद चली आए यहाँ दिल का दरवाज़ा शब-ओ-रोज़ खुला रखते हैं ख़ैरमक़दम न किया हमने उम्मीदों का कभी आरज़ूओं को तो हम दर पे खड़ा रखते हैं हम सा दीवाना भी “ मुमताज़ ” कोई क्या होगा हर तबाही को कलेजे से लगा रखते हैं ब अंदाज़-ए-जुदा – अलग अंदाज़ में , तलब – माँग , मा ’ रेका – जंग , तारीकियाँ – अँधेरा , तबस्सुम – मुस्कराहट , ज़िया – रौशनी , नफ़स – साँस , अज़ीयत – यातना , वबाल – मुसीबत , अदावत