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हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं

हर अदा हम तो ब अंदाज़-ए-जुदा रखते हैं ऐब ये सब से बड़ा है कि वफ़ा रखते हैं हर नए ज़ख़्म को सर आँखों पे रक्खा है सदा दर्द सीने में तलब से भी सिवा रखते हैं मा ’ रेका माना है दुश्वार , मगर हम भी तो दिल में तूफ़ान , निगाहों में बला रखते हैं कितनी तारीकियाँ सीने में छुपा कर भी हम हर अँधेरे में तबस्सुम की ज़िया रखते हैं हर नफ़स एक अज़ीयत है तो धड़कन है वबाल एक इक साँस में सौ दर्द छुपा रखते हैं क्या कहा ? आपको हम से है अदावत ? साहब जाइए जाइए , हम भी तो ख़ुदा रखते हैं बात की बात में लड़ने पे हुए आमादा तीर हर वक़्त जो चिल्ले पे चढ़ा रखते हैं जाने कब उसकी कोई याद चली आए यहाँ दिल का दरवाज़ा शब-ओ-रोज़ खुला रखते हैं ख़ैरमक़दम न किया हमने उम्मीदों का कभी आरज़ूओं को तो हम दर पे खड़ा रखते हैं हम सा दीवाना भी “ मुमताज़ ” कोई क्या होगा हर तबाही को कलेजे से लगा रखते हैं ब अंदाज़-ए-जुदा – अलग अंदाज़ में , तलब – माँग , मा ’ रेका – जंग , तारीकियाँ – अँधेरा , तबस्सुम – मुस्कराहट , ज़िया – रौशनी , नफ़स – साँस , अज़ीयत – यातना , वबाल – मुसीबत , अदावत

कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने

कहाँ तक इन बयाबानों की कोई ख़ाक अब छाने हमारी ज़िन्दगी में दूर तक बिखरे हैं वीराने न जाने कितने नक़्शे बनते रहते हैं तसव्वर में सुनाती है सियाही रात भर कितने ही अफ़साने यहाँ भी वो ही वहशत , वो ही ज़ुल्मत , वो ही महरूमी हम आए थे यहाँ दो चार पल की राहतें पाने न गर तर्क-ए-मोहब्बत हम करें अब तो करें भी क्या मोहब्बत भी है अब ज़ख़्मी , शिकस्ता हैं वो याराने लिए जाती है जाने किस जगह ये आरज़ू मुझ को हमारी बेबसी का कोई भी अब राज़ क्यूँ जाने सराबों का सफ़र सहरा ब सहरा करते जाते हैं जहाँ हम हैं वहाँ आती नहीं कोई घटा छाने ये किस मंज़िल पे आ पहुँची हमारी आबलापाई तमन्ना लाई है हमको यहाँ बस ठोकरें खाने करें किस से गिला “ मुमताज़ ” हम ख़ुद भी नहीं अपने पराया है तसव्वर भी , हैं सारे ख़्वाब बेगाने तसव्वर – कल्पना , सियाही – अँधेरा , ज़ुल्मत – अँधेरा , तर्क-ए-मोहब्बत – प्यार का त्याग , शिकस्ता – टूटी हुई , सराबों का सफ़र – मरीचिकाओं का सफ़र , सहरा ब सहरा – रेगिस्तान से रेगिस्तान तक , आबलापाई – पाँव में छाले होना , गिला – शिकायत 

गीत - जब छोड़ दिया - दिल तोड़ दिया

जब छोड़ दिया दिल तोड़ दिया क्यूँ याद फिर आते हो जानाँ ग़म ढल भी गया दिल जल भी गया क्या आग बुझाते हो जानाँ इन टूटी बिखरी यादों को कब तक मैं समेटूँ , कहाँ रखूँ बेरंग अधूरे सपनों में किस ख़्वाहिश का अब रंग भरूँ जब रात गई हर बात गई क्या याद दिलाते हो जानाँ एहसास का शीशा टूट गया जज़्बात का दामन छूट गया हस्ती में वो तूफ़ान उठा मेरा दिल भी मुझ से रूठ गया सब छीन लिया बदनाम किया अब राज़ छुपाते हो जानाँ ? हसरत की सुनहरी वो दुनिया वीरान अँधेरी है जानाँ हर एक तमन्ना रहज़न है उम्मीद लुटेरी है जानाँ वो दर्द है अब दिल सर्द है अब क्यूँ दर्द बढ़ाते हो जानाँ

नज़्म - क़ाबिज़

ऐ मेरी रातों की तनहाई के ख़ामोश रफ़ीक़ ऐ मेरे दिल के मकीं ऐ मेरे ख़्वाबों के शफ़ीक़ मेरे जज़्बात में तूफ़ान उठाने वाले मेरे ख़्वाबों पे मेरे ज़हन पे छाने वाले तू ने अरमान जगाए मेरे मुर्दा दिल में छुप के रहने लगा पलकों के सुनहरे ज़िल में मेरे एहसास-ए-सितमगर को हवा दी तू ने मेरे सोए हुए नग़्मों को सदा दी तू ने एक चिंगारी जो अब राख में गुम होने को थी याद इक वक़्त की परतों में कहीं खोने को थी वही चिंगारी भड़क उट्ठी है शो ’ लों की तरह ज़ख़्म ताज़ा हुए गुलमोहर के फूलों की तरह मेरे महबूब मेरे दोस्त ऐ मेरे हमदम ऐ बुत-ए-संग मेरे ऐ मेरे पत्थर के सनम मेरे एहसास पे क़ाबिज़ है तेरे प्यार का ग़म मैं ने रक्खा है तेरी शोख़ अदाओं का भरम वर्ना ऐसी तो नहीं मुझ पे तेरी नज़र-ए-करम कि मेरे टूटे हुए दिल को क़रार आ जाए दिल-ए-ग़मगश्ता मेरा जिससे सुकूँ पा जाए 

हम को बादल के तअक़्क़ुब का सिला

हम को बादल के तअक़्क़ुब का सिला सिर्फ़ तश्नालबी-ओ-प्यास मिला बेहिसी का ये सिलसिला पैहम अब तवक़्क़ोअ हमें न कोई गिला राह आसाँ है पार क्यूँकर हो हादसा भेज , कोई ज़ख़्म खिला एक मुद्दत से ये घर तन्हा है ऐ हवा छेड़ न कर , दर न हिला हो उठे ज़िन्दा मनाज़िर सारे बाग़-ए-माज़ी में जब वो फूल खिला दर्द हद से गुज़र गया अब तो हो न कोई दवा तो ज़हर पिला और कुछ जब्र की रफ़्तार बढ़ा ज़िन्दगी का मुझे एहसास दिला कब तलक दश्त नवर्दी ऐ दिल घर को चल , दर की भी ज़ंजीर हिला तेरी बरबादी-ए-पैहम “ मुमताज़ ” है तेरी ख़ुशमज़ाक़ियों का सिला  तअक़्क़ुब – पीछा करना , तवक़्क़ोअ – उम्मीद , मनाज़िर – दृश्य , दश्त नवर्दी – जंगल में भटकना , बरबादी-ए-पैहम – लगातार बर्बाद होना 

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया

मुंतशर जज़्बात ने सीने को ख़ाली कर दिया तार कर डाला अना को हिस को ज़ख़्मी कर दिया राहत-ओ-तस्कीन को अब छोड़ कर आगे बढ़ो मेरे मुस्तक़बिल ने ये फ़रमान जारी कर दिया क्या हो अब रद्द-ए-अमल , कुछ भी समझ आता नहीं अक़्ल पर वहशत ने इक सकता सा तारी कर दिया वो भी था ज़ख़्मी , लहू में तर बदन उसका भी था हम ने उसकी जीत का ऐलान फिर भी कर दिया धज्जियाँ अपनी अना की उसके दर पर छोड़ दीं क़र्ज़ ये उसकी अना पर हम ने बाक़ी कर दिया जो पस-ए-अल्फ़ाज़ था हम ने सुना वो भी मगर उसने जो हम से कहा हमने भी वो ही कर दिया हम मिटा आए हैं उसकी राह से हर इक निशाँ जो कि सोचा भी नहीं था , काम वो भी कर दिया क़त्ल कर डाला वफ़ा को तोड़ दी हर आरज़ू एक इस ज़िद ने हमें “ मुमताज़ ” वहशी कर दिया मुंतशर – बिखरा हुआ , तार कर डाला – फाड़ दिया , अना – अहं , हिस – भावना , तस्कीन – सुकून , मुस्तक़बिल – भविष्य , रद्द-ए-अमल – प्रतिक्रिया , सकता – अवाक होना , पस-ए-अल्फ़ाज़ – शब्दों के पीछे , वहशी – जंगली

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था

शिकस्ता हो के भी बिस्मिल नहीं था मेरे सीने में शायद दिल नहीं था जिसे दे डालीं हम ने सारी साँसें हमारे प्यार के क़ाबिल नहीं था जो उस की याद आई तो ये जाना भुलाना भी उसे मुश्किल नहीं था मैं उस के बाद भी ज़िंदा हूँ , गोया वो मेरी रूह में दाख़िल नहीं था समंदर था , तलातुम था , भंवर थे कहीं भी कोई भी साहिल नहीं था हमें मालूम थे उस के इरादे किसी पहलू से दिल ग़ाफिल नहीं था जिसे हक दे दिया था फ़ैसले का वो मुजरिम था , कोई आदिल नहीं था हमें "मुमताज़" जो सरशार करता वो दिल को कर्ब भी हासिल नहीं था शिकस्ता- टूटा हुआ , बिस्मिल- घायल , गोया- जैसे कि , रूह में दाखिल- आत्मा में समाया हुआ , तलातुम- लहरों का उठना गिरना , साहिल- किनारा , आदिल- न्यायाधीश , सरशार- मदमस्त , कर्ब-दर्द