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भुला दे मुझको

तू मेरे साथ न चल पाएगा ऐ जान-ए-जहाँ हो सके तो रह-ए-उल्फ़त में मेरे साथ न चल वक़्त के दरिया के हम दोनों दो किनारे हैं दरमियाँ अपने वजूदों के बहुत दूरी है तेरे हमराह रिवाजों की कठिन शर्तें हैं और मेरे वास्ते ये ज़िन्दगी मजबूरी है क़ुर्बतें हम को सिवा फ़ासलों के क्या देंगी शबनमी आरज़ूएँ तश्नगी बढ़ा देंगी अपनी क़िस्मत में मिलन का कोई इमकान नहीं क्यूँ कि मुश्किल है मोहब्बत , कोई आसान नहीं तू न इस राह पे चल पाएगा मेरे हमराह काग़ज़ी तेरा वजूद और ये शो ’ लों भरी राह दूर रह मुझसे , ख़यालों से मिटा दे मुझको और मुनासिब है कि तू अब से भुला दे मुझको  

हो रहा है इक तमाशा, अदलिया हरकत में है

हो रहा है इक तमाशा , अदलिया हरकत में है अहल ए ज़र की है ख़ुदाई , मुफ़्लिसी आफ़त में है खेल तख़्त ओ ताज का , इंसां की लाशों की बिसात देख कर ये क़त्ल ओ ग़ारत मौत भी दहशत में है क्या इनायत , क्या मुरव्वत , रहम क्या , कैसा ख़ुलूस किस को देखे कौन , हर कोई यहाँ उजलत में है बढ़ती ही जाती है पैहम सल्तनत शैतान की मुंह छुपाए आजकल इंसानियत खिल्वत में है खाएं क्या रोटी से ? इस सूखे सड़े ईमान को ऐश ओ इशरत तो मियाँ अब आजकल रिश्वत में है हम तरक्क़ी पर हैं , वो मानेंगे जो मौजूद है ज़ीनत ए दुनिया है ज़ाहिर , हश्र तो ज़ुल्मत में है या इलाही , है रवां किस सिम्त ये अंधा समाज फिर से इक तौक़ ए ग़ुलामी मुल्क की क़िस्मत में है ज़ीस्त आसाँ हो तो जीने का मज़ा क्या ख़ाक है ? मुश्किलों से खेलना "मुमताज़" की आदत में है अदलिया-न्यायिक व्यवस्था , अहले ज़र-पैसे वाले , मुफ़्लिसी-निर्धनता , ख़ुलूस-सच्चा प्यार ,  उजलत-जल्दी , पैहम-लगातार , खिल्वत-अकेलापन , ज़ीनत ए दुनिया- दुनिया की सजावट , हश्र-अंत , ज़ुल्मत-अँधेरा , है रवां किस सिम्त-किस दिशा में जा रहा है , तौक़ ए ग़ुलाम

तूल ये तन्हाइयों का, कितनी लम्बी है ये रात

तूल ये तन्हाइयों का , कितनी लम्बी है ये रात इस अज़ाब ए ज़िन्दगी से क्यूँ नहीं मिलती निजात कुर्बतों के दर्मियाँ थे कितने लम्बे फ़ासलात दिल के टुकड़े कर गई है आज तेरी बात बात हसरतों का बोझ , आँखों की जलन , ये रतजगे वुसअतें तन्हाई की ये , एक भी साया , न ज़ात सो गई हर एक हलचल , खो गई हर ज़िन्दगी ख़ामुशी के शोर से अब गूंजते हैं जंगलात रतजगे , बेचैनियाँ , उलझन , तवक़्क़ोअ , हैरतें जिस में इतने पेच ओ ख़म हैं , है ये कैसा इल्तेफ़ात अब कहाँ जाने रुके अल्फ़ाज़ का ये काफ़िला ये जुनूँ की आज़माइश , ये सुख़न की वारदात कैसी ने ' मत पाई है अब के दिल ए मजरूह ने मेरे दामन में सिमट आई है सारी कायनात हम ने ये "मुमताज़" बाज़ी हार कर भी जीत ली जान की बाज़ी में यारो , कैसी जीत और कैसी मात तूल-लम्बाई , अज़ाब ए ज़िन्दगी-जीवन की यातना , निजात-छुटकारा , क़ुर्बतों के दर्मियाँ-नज़दीकियों में , फ़ासलात-दूरियां , वुसअतें-फैलाव , तवक्कोअ-उम्मीद , पेच ओ ख़म-मोड़ और घुमाव , इल्तेफात-मेहरबानी , अल्फ़ाज़-शब्द , जुनूँ-पागलपन , आज़माइश-परीक्षा , सुख़न-शायरी , मजरूह-घायल , कायन

हम थे बरहम ज़रा ज़रा ख़ुद से

हम थे बरहम ज़रा ज़रा ख़ुद से कोई रिश्ता नहीं रखा ख़ुद से आज माज़ी से हम भी मिल आए इन्तेकाम इस तरह लिया ख़ुद से उस ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन मैं ने ख़ुद ही गिला किया ख़ुद से तेरी हर एक जुस्तजू है अबस मैं ने सरगोशी में कहा ख़ुद से हिम्मतों ने इरादा बाँध लिया हो गया हर किवाड़ वा ख़ुद से सब तबीबों ने हाथ खेंच लिए ज़ख्म फिर बन गया दवा ख़ुद से गो जुदा मैं रही ज़माने से मेरा दामन नहीं बचा ख़ुद से तोड़ दूं अब तमाम ज़ंजीरें कब तलक मैं रहूँ जुदा ख़ुद से कौन रहता है मुझ में छुप के मुदाम कैसा रिश्ता ये है मेरा ख़ुद से फिर निभाया भी उस को जाँ दे कर एक वादा जो कर लिया ख़ुद से बोझ कब तक वजूद का ढोएँ ख़ुद को "मुमताज़" ले चुरा ख़ुद से बरहम-नाराज़ , माज़ी-भूतकाल , इंतेक़ाम-बदला , गिला-शिकायत , जुस्तजू-तलाश , सरगोशी-फुसफुसा कर , वा हो गया-खुल गया , तबीबों ने-वैद्यों ने , गो-हालांकि , मुदाम-हमेशा 

उलझनें मुख़्तसर नहीं होतीं

उलझनें मुख़्तसर नहीं होतीं उल्फ़तें कारगर नहीं होतीं बेख़ुदी का कमाल है ये भी लग़्ज़िशें जान कर नहीं होतीं ज़िन्दगी डूब ही गई होती ये निगाहें जो तर नहीं होतीं ये इनायत है वक़्त की वर्ना हसरतें दर ब दर नहीं होतीं या इलाही कोई इलाज-ए-हयात अब ये घड़ियाँ बसर नहीं होतीं नारसाई नसीब है वर्ना आहें महव-ए-सफ़र नहीं होतीं मंज़िलें दूर तो नहीं इतनी तय ये राहें मगर नहीं होतीं हम भी “ मुमताज़ ” सो गए होते कुछ उम्मीदें अगर नहीं होतीं मुख़्तसर – कम , बेख़ुदी – अपने आप में न होना , लग़्ज़िशें – लड़खड़ाहट , इलाही – अल्लाह , हयात – ज़िन्दगी , नारसाई – न पहुँच सकना , महव-ए-सफ़र – सफ़र में गुम 

तुन्द तेवर आज ख़ावर के भी आओ देख लें

तुन्द तेवर आज ख़ावर के भी आओ देख लें कुछ नज़ारे रोज़ ए महशर के भी आओ देख लें झूट की थोड़ी सी आमेज़िश तो है इस में मगर उस की बातों पर यक़ीं कर के भी आओ देख लें अपनी हिम्मत पर बहोत हम को भरोसा है मगर हौसले कितने हैं ख़ंजर के भी , आओ देख लें बेनियाज़ी तो बहुत देखी है यज़दां की मगर अब करम थोड़े से पत्थर के भी आओ देख लें है हमारे बिन बहुत ग़मगीन ये सुनते तो हैं घर चलें , आंसू ज़रा घर के भी आओ देख लें वहशतें , तल्ख़ी , नदामत , इम्तेहाँ , नाकामियाँ जी के अब जी भर गया , मर के भी आओ देख लें ज़ख्म से "मुमताज़" मिलती है बलंदी किस तरह मो ' जिज़े कुछ अपने शहपर के भी आओ देख लें तुन्द-बिगड़े हुए , ख़ावर-सूरज , रोज़ ए महशर-प्रलय का दिन , आमेज़िश-मिलावट , बेनियाज़ी-बेपरवाही , यज़दां-अल्लाह , ग़मगीन-दुखी , वहशतें-बेचैनियाँ , तल्ख़ी-कड़वाहट , नदामत-शर्मिंदगी , मो ' जिज़े-चमत्कार  

नहीं सौदा हमें मंज़ूर, दौलत का ज़मीरों से

न ऐसे छेड़ कर बाद ए सबा तू हम हक़ीरों से क़फ़स से सर को टकराते हुए वहशी असीरों से नहीं सौदा हमें मंज़ूर , दौलत का ज़मीरों से कोई ये जा के कह दे इस ज़माने के अमीरों से लहू दिल का पसीना बन के बह जाना भी लाज़िम है मुक़द्दर यूँ नहीं खुलता हथेली की लकीरों से अज़ल से है मोहब्बत दहर वालों के निशाने पर मगर डरता कहाँ है इश्क़  तलवारों से, तीरों से घिरी है ज़िन्दगी बहर ए अलम में , ठीक है लेकिन बिखर जाती हैं मौजें सर को टकरा कर जज़ीरों से सितम परवर , ख़ामोशी को मेरी मत जान मजबूरी चटानें भी कभी कट जाती हैं पानी के तीरों से तजुर्बों ने हमें तोड़ा है , फिर अक्सर बनाया है अयाँ है राज़ ये "मुमताज़" चेहरे की लकीरों से बाद ए सबा-सुबह की हवा , हक़ीरों से-छोटे लोगों से , क़फ़स-पिंजरा , वहशी-पागल , असीरों से-बंदियों से , लाज़िम-ज़रूरी , अज़ल से-सृष्टि की शुरुआत से , दहर वालों के-दुनिया वालों के , बहर ए अलम-दर्द का सागर , मौजें-लहरें , जज़ीरों से-द्वीपों से , सितम परवर-यातनाओं को पालने वाले , अयाँ है-ज़ाहिर है